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________________ - १२ - करें या बैठकर, फूल चढ़ायें या अक्षत, पूजाके द्रव्योंका क्रम इस रूपमें हो या उस रूपमें श्रादि साधारण प्रश्नोंमें भी विधि और विधानकी मौजूदा परिपाटी अपरिवर्तनशील है। हम बहुत कम यह सोचते हैं कि पूजाकी विधिकी तो बात ही क्या, हमारे मंदिरोंकी बनावट और मूर्तियोंको गढ़नमें परिवर्तन होता रहा है। फिर भी उनकी पूज्यता कम नहीं हुई। उदाहरणके लिए 'खंडहरोंका वैभव में हमें निम्नलिखित तथ्य मिलते हैं, जो स्थापत्य और मूर्तिकलाकी विविधता या विकासकी ओर संकेत करते हैं :१. मूर्तिशिल्प-दक्षिणका मूर्तिशिल्प उत्तरसे भिन्न है। एक युगकी कला दूसरे युगकी कला से भिन्न है । कहीं-कहीं प्रान्तीयता भी मूर्तियों के आकार में परिलक्षित होती है । २. प्रभामंडल-मूर्तियों के पीछे जो प्रभामंडल या भामंडल बनाया जाता है, उसका क्रमिक विकास हुआ है। कुषाणकालीन प्रभामंडल सादा था, गुप्तकालीन अलंकृत और गुप्तोत्तरकालीन प्रभामंडल तो अलंकार उपकरणोंसे इतना अधिक भर दिया गया था कि मूल मूर्ति गौण हो गई और प्रभामंडलको सजा मुख्य । ३. परिकर-मूर्तियोंके चारों ओर शिलापट्टपर जो अन्य मूर्तियाँ या अलंकरण खने गये वह २-३ शताब्दियों के बाद बदलते गये। कालान्तरमें इन परिकरोंमें प्रातिहार्यके साथ साथ श्रावकोंकी मूर्तियाँ भी शामिल होने लगीं। ४. लक्षण-भिन्न-भिन्न तीर्थंकरकी मूर्तियोंकी पहचान भिन्न-भिन्न लक्षणों से है, पर लक्षणका भेद बादकी चीज़ है । अनेक प्राचीन मूर्तियोंमें यह भेद नहीं है। ५. कई प्राचीन जैन-मूर्तियोंमें सिरपरसे खुले बाल कंधोंपर लटकते दिखाये गये हैं। यह मूर्तियाँ जैनधर्मके आदि तीर्थंकर ऋषभनाथकी हैं और कहीं-कहीं यह चतु:मुष्टीकेशलोंचका रूपक है । Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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