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________________ १५२ खण्डहरोंका वैभव हैं, जिनकी समुचित रक्षा की जाय, तो हमारे पूर्वजोंके अतीतके उज्ज्वल कीर्ति-स्तम्भ स्वरूप ये प्रतीक राष्ट्रिय अभिमान जाग्रत कर सकते हैं। इस प्रबन्धमें, मैं केवल मध्यप्रदेशस्थ जैनपुरातत्त्वावशेषोंका ही उल्लेख करना उचित समझता हूँ। कारण कि मुझे इस प्रदेश के एक भाग पर बिहार करते हुए, जैनाश्रित कलाकी जो सामग्री उपलब्ध हुई, उससे मैं इस निष्कर्षपर पहुँचा कि वर्तमानमें स्थानीय प्रादेशिक कलाविकासमें सापेक्षतः भले ही जैनोंका योग दृष्टिगोचर न होता हो, पर आजसे शताब्दियों पूर्वकी कला-लताको जैनोंने इतना प्रश्रय दिया था कि सम्पूर्ण प्रदेश लता-मंडपोंसे आच्छादित कर दिया था। प्रचुर अर्थसम्पन्न समाजने उच्चतम कलाकार-साधकोंको आर्थिक दृष्टिसे निराकुल बना, कलाकी बहुत उन्नति की। जिसके साक्षी स्वरूप आज सम्पूर्ण हिन्दी-भाषी मध्यप्रदेश के गर्भ से, जैनाश्रित शिल्पकलामेंके अत्युच्च प्रतीक उपलब्ध होते हैं। ____ यह आलोचित प्रान्त कई भागोंमें बँटा हुआ था। छठवीं शतीके सुप्रसिद्ध विद्वान् वराहमिहिरने बृहत्संहितामें २८३ राज्योंके वर्णन करते समय, आग्नेय दिशाकी अोर जिन राज्योंका सूचन किया है उनमें "मध्यप्रान्त के तत्कालीन राज्योंके नाम इस प्रकार दिये हैं--दक्षिणकोसल (छत्तीसगढ़), मेकल, विदर्भ, चेदि, विंध्यान्तवासी, हैहय, दशार्ण, त्रिपुरी और पुरिका । इन नामोंके क्रमिक विकासको समझने में जैन-साहित्य बहुत मदद करता है। विशेषतया तीर्थवंदना परक ग्रन्थ । प्रत्येक शताब्दीमें जैनतीर्थों की जो 'वंदना' निर्मित होती हैं, उनमें प्रायः सभी भू-भागोंका भौगोलिक नामोल्लेख रहता है । अस्तु । ___ साधारणतः मध्यप्रान्तके शिलोत्कीर्ण लिपियोंका जहाँ भी उल्लेख होता है, वहाँ रूपनाथ-( जबलपुर ) स्थित अशोकके लेखका नाम सर्वप्रथम लिया जाता है । उन दिनों यहाँ जैनसंस्कृतिकी क्या दशा थी? यह एक Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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