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________________ जैन-पुरातत्त्व ३ - "ढकपव्वए रायसीहरायउत्तस्स भोपलनामिअं धूअं रूपलावण्णा सम्पन्नं दळूणं जायाणुरायस्स तं सेवमाणस्स वासुगिणो पूत्तो नागाज्जुणो नाम जाओ"' प्रबन्धकोश और पिंडविशुद्धिकी टीकात्रोंमें उपर्युक्त पंक्तियोंका समर्थन किया गया है। स्वर्णसिद्धिके लिए नागार्जुनने बड़ा श्रम किया था । कहना चाहिए यही उनके लिए प्राणघातिनी साबित हुई । ढंक पर्वतकी गुफामें इसने रसकूपिका रखी थी, जैसा कि इस उल्लेखसे स्पष्ट है- "नागार्जुनेन द्वौ कुपितौ भृतौ ढंकपर्वतस्य गुहायां क्षिप्तौ"" निस गुफाका ऊपर उल्लेख किया है, वह जैन-गुफा है । यद्यपि डा० बजेसने इसकी गवेषणा की थी पर जैन प्रमाणित करनेका श्रेय मेरे मित्र डा० हंसमुखलाल धीरजलाल सांकलियाको है। आपने गुफामें भगवान् पार्श्वनाथकी एक खड़ी प्रतिमा देखी, अम्बिकाकी आकृति भी। डा० सांकलियाने इस प्रतिमाका समय ईस्वी सन् तीसरी शती स्थिर किया हैं। इसी कालके कुछ शिल्प श्री साराभाई नवाबने भी सौराष्ट्र में देखे थे। चन्द्रगुफा बाबा प्यारेके मठका उल्लेख ऊपर एक बार आ चुका है। वहाँको गुफाओंका अध्ययन बर्जेसने किया है। उनको इन गुफाओंमें ईस्वी पूर्व प्रथम और द्वितीय शतीके चिह्न मिले हैं। इनमें स्वस्तिक, नंदीपद, मत्स्थयुगल, भद्रासन तथा कुम्भकलश भी सम्मिलित हैं । ये अष्टमंगलसे सम्बद्ध हैं। मथुराकी जैनाश्रितकृतियोंमें भी इनकी उपलब्धि हो चुकी है। 'विविधतीर्थकल्प, पृ० १०४, 'पुरातन प्रबंध संग्रह, पृ० ६२, श्रीजैनसत्यप्रकाश, व० ४ अं० १-२, भारतीय विद्या, भा० १, अंक २, Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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