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________________ जैन-पुरातत्त्व | उपासक थे। इतिहासमें इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। नन्दिवर्धनने जब कलिंगको हस्तगत किया, तब वहाँ से एक जैनमूर्ति उठा लाया था। इसीसे इनके जैनत्वका पता चल जाता है। यों तो जैनमूर्तिके परिकरमें यक्ष-यक्षिणीके निम्न भागमें गृहस्थ युगलकी कृति दृष्टिगत होती है, पर वस्तुपाल, तेजपाल, सपत्नीक, वनराज' चावड़ा, मोतीशाह आदि कई गृहस्थोंकी स्वतन्त्र मूर्तियाँ भी हाथ जोड़े मन्दिर में स्थापित की गई हैं। आबू पर्वतपर तो मंत्रीश्वर विमलके पूर्वजोंकी मूर्तियाँ भी अंकित हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि उनकी पूजा हो, पर भक्तिकी मुद्रामें वे खड़े रहें, यही उद्देश्य था। उपर्युक्त पंक्तियोंमें प्राप्त सभी प्रकारकी मूर्तियोंका उल्लेख कर दिया गया है । संभव है कुछ रह भी गया हो। तीर्थकर मूर्तियाँ, उनका परिकर, यक्ष-यक्षिणियोंके बिम्ब, न केवल धार्मिक दृष्टि से ही महत्त्वके हैं, अपितु भारतीय मूर्तिकलाके क्रमिक विकासके अध्ययनकी मूल्यवान् सामग्री भी हैं। सामाजिक रहन सहन और आर्थिक विकास भी उनमें परिलक्षित होता हैं । सौंदर्य के प्रकाशमें देखें तो अवाक रह जाना पड़ेगा। शिल्पाचार्यों ने अपने श्रमसे जो कलाकृतियाँ भेंट की हैं, उनमें आनन्द देनेकी अनुपम क्षमता है । उनसे आत्माको शान्ति मिलती है । २-गुफाएँ ... जैन-गुफाएँ पर्याप्त परिमाणमें उपलब्ध होती हैं। आध्यात्मिक साधनाके उन्नत शिखरपर अग्रसर होने वाली भव्यात्माएँ वहाँ पर निवास कर, दर्शनार्थ पाकर अनुपम शान्तिका अनुभव कर आत्मतत्त्वके रहस्य 'भारतना जैनतीथों अने तेमनुं शिल्प स्थापत्य प्लेट ४६,.. भारतनां जैनतीर्थो अने तेमन शिल्प स्थापत्य प्लेट ५० उपर्युक्त ग्रन्थमें ऐसी कई प्रतिकृतियाँ हैं। Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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