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________________ ८८ खण्डहरोंका वैभव पुरातन जितनी भी गुरु-मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं, वे सब बारहवीं शतीके बादकी ही हैं । जिनकी प्रतिमाएँ बनी हैं, वे प्राचार्य भी अधिकतर इस समय बादके ही हैं । गुरु-मूर्तियोंका शास्त्रीयरूप निर्धारित न होनेके कारण उनके निर्माण में एकरूपता नहीं रह सको है। उपलब्ध प्राचार्य प्रतिमाओंमें आचार्य श्रीजिनदत्तसूरि और श्रीजिनकुशलसूरि ही ऐसा महापुरुष हुए हैं, जिनकी मूर्ति या चरण सम्पूर्ण भारतमें प्रायः पाये जाते हैं। मध्यकालीन जैनसमाज इनके द्वारा उपकृत हुआ है । श्वेताम्बर जैन-परम्परामें इन दोनोंका स्थान अनुपम है। प्राचार्य-मूर्ति-निर्माण पद्धतिका विकास न केवल, श्वेताम्बर परम्परामें ही हुआ अपितु दिगम्बर परम्परा भी इससे अछूती नहीं है। प्रतिष्ठापाठके निन्न उल्लेखसे फलित होता है प्रातिहा विना शुद्धं सिद्धबिम्बमपीदृशाम् । सूरीणां पाठकानां च साधूनां च यथागमम् ॥७॥ - कारकलके जैन-स्मारकोंका परिचय देते हुए, कुन्थुनाथ तीर्थंकरके बगलकी निषदिकामें स्थित कतिपय मूर्तियोंका परिचय, श्री पंडित के० भुजबली शास्त्रीके शब्दोंमें इस प्रकार है---"१, कुमुदचन्द्र भ० २, हेमचन्द्र भ० ३, चारुकीर्ति पंडित देव ४, श्रुतमुनि ५, धर्मभूषण भ० ६, पूज्यपाद स्वामी। नीचेकी पंक्तिमें क्रमशः १, विमलसूरि भ० २, श्रीकीर्ति भ० ३, सिद्धान्तदेव ४, चारुकीर्तिदेव ५, महाकीर्ति ६, महेन्द्रकीर्ति । इस प्रकार उक्त इन व्यक्तियों की मूर्तियाँ छह-छहके हिसाबसे तीन-तीन युगल रूपमें बारह मूर्तियाँ खुदी हैं ।'' गृहस्थ-मूर्तियाँ राजाओंकी जितनी भी प्राचीन मूर्तियाँ भारतमें उपलब्ध हुई हैं उनमें सर्वप्राचीन अजातशत्रु और नन्दिवर्धनकी हैं। वे दोनों जैनधर्मके 'वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० २५२, Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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