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________________ हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३१) ऋद्धिर्बल्या त्रिदोषघ्नी शुक्ला मधुरा गुरुः। प्राणैश्वयंवरी मृरिक्तपित्तविनाशिनी ॥ १४०॥ वृद्धिगर्भप्रदा शीता बृंहणी मधुरा स्मृता। वृष्या पित्तास्रशमनी क्षतकासक्षयापहा॥ १४१॥ राज्ञामप्यष्टवर्गस्तु यतोऽयमतिदुर्लभः । तस्मादस्य प्रतिनिधिग्रहीयात्तद्गुणं भिषक् ।।१४२॥ ऋद्धि और वृद्धि यह दोनों कन्द कोशयामल पर्वतमें पाये जाते हैं। ऋद्धि व वृद्धि के कन्द लताओंके नीचेसे निकलते हैं, इन कन्दों पर श्वेत नोभ और छिद्रसे होते हैं अब ऋद्धि और वृद्धि में भेद कहते हैं। ऋद्धि कपासकी गांठके समान होती है तथा इसका फल बाई ओर घूमा हुआ होता है। वृद्धिका फल दाई बोर घूमा हुआ रहता है ऐसा महर्षियोंने कहा है। ऋद्धि सिद्धि तथा लक्ष्मी यह ऋद्धिके और वृद्धि सिद्धि तथा लक्ष्मी यह वृद्धिके नाम हैं। . ऋद्धि बलवर्धक, त्रिदोषनाशक, वीर्यको बढानेवाली, मधुर, भारी, आयु तथा ऐश्वर्यको बढानेवाली तथा मूच्र्छा और रक्तपित्तका नाश करने वाली है । वृद्धि-गर्भके देनेवाली, शीतवीर्य, धातु पुष्टिको करनेवाली, मधुर, वीर्यठधक, पित्त तथा रक्तको शमन करनेवाली तथा चत कास पौर क्षयको दूर करती है। क्योंकि प्रायः यह अष्टवर्ग राजाओंके लिये भी दुप्राप्य होगया है इसलिये वैद्यको इसके स्थान पर इसके सदृश गुणोंवाले इसके प्रतिनिधि द्रव्य प्रयोग करना चाहिये ॥ १३७-१४२॥ मुख्यसदृशः प्रतिनिधिः। मेदाजीवककाकोलीवृद्धिद्वंद्वेऽपि चासति । वरी विदार्यश्वगंधा वाराहीश्चक्रमाक्षिपेत् ॥१४॥
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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