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________________ ( ४०४ ) भावप्रकाश निघण्टुः मा. टी. । विबन्धभेदिनः श्लेष्मकारिणोऽत्य निपूजिताः । संचूर्ण्य निक्षिपेत्तके भृष्टजीरकहिंगुभिः ॥ ४८ ॥ लवणं तत्र वटकान्स कलानपि मज्जयेत् । शुकलस्तत्र वटको बलकृद्रोचनो गुरुः ।। ४९ ।। विबन्धहृद्विदाही च श्लेष्मलः पवनापहः । राज्यक्तपातिनो वान्यान्पाचनस्तस्तु भक्षयेत् ५० राज्यक्ता (राइता ) इति लोके ॥ उडदों की पिट्टि में नौन, अदरक और होंग मिलाकर धीरे २ तेलमें बड़े कावे भरवा पिट्टिकी वरी बनाकर तेल में पकावे । बडे बलदायक, पृष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक, वायुरोगनाशक, रुचिकारक और विशेषकरके प्रतिमान (लकण ) को दूर करता, मलबन्धभेदक (दस्तावर ), करुकारी और प्रदीप्त प्रशिवालों के लिये उनम हैं । तथा हिंग गरेका चूर्ण भूरकर मट्टे (छाल) में डाले पश्चात् नमक डालकर इनमें बडी छोड देवे । वह बड़ी वयवर्द्धक, रुचिकारक, भारी, मनभेदक, बिहाड़ी, कफक्काएक और वातनाशक है । अथवा शषतेनें मिलाकर वा पौर अन्य पाचन के साथ खावे ॥ ६६-५० ॥ अथ कानि स्वकः ( फाबरा) मन्थनी नूतना धार्या कटुतैलेन लेपिता । निर्मलेनाम्बुनापूर्य तस्यां चूर्ण विनिक्षिपेत् ॥ ५१ ॥ . राजिकाजीरलवण हिंगुशुण्डी निशा कृतम् । निक्षिपेट कांस्तत्र भांडस्यास्यञ्च मुद्रयेत् ॥ ५२ ॥ ततो दिनत्रया ध्रुवम् । 518 TAho ! Shrutgyanams
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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