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________________ (३००) भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. 1 रक कफनाशक, दीपन, हल्का, मधुर, पाकमें कटु, वातनाशक औरं पित्तको न करनेवाला है ॥ ४० ॥ ४१ ॥ सारसम् । नद्याः शैलादिरुद्वायायत्र संश्रुत्य तिष्ठति । तत्सरोजदलच्छन्नं तद्भः सारसं स्मृतम् ॥ ४२ ॥ सारसं सलिलं बल्यं तृष्णाघ्नं मधुरं लघु । रोचनं तुवरं रूक्ष बद्धमूत्रमलं स्मृतम् ॥ ४३ ॥ पर्वत मादिसे रुका हुआ जहाँ नदी का जल झर २ कर इकट्ठा होता है और वह कमलके पत्रोंसे ढका हुआ हो उस स्थान के जल को सारस कहते हैं । सारस जल-बलकारक, तृष्णा नाशक, मधुर, हलका, रुचिका - रक, कसैला, रूक्ष और मूत्र तथा मल को बाँधनेवाला होता है ॥ ४२ ॥४३॥ तडागम् । प्रशस्त भूमिभागस्थो बहुसंवत्सरोषितः । जलाशयस्तडागः स्यात्ताडागं तजलं स्मृतम् ॥ ४४ ॥ ताडागमुदकं स्वादु कषायं कटुपाकि च । वातलं बद्धविण्मूत्रममृकपित्तकफापहम् ॥ ४५ ॥ अनेक वर्षोंका पुराना और उत्तम स्थानपर बना हुआ तालाब तडाग होता है । तडागका जल-स्थादु, कसैला, कटुपाकी, वातकारक, मल तथा मूत्रको बाँधनेवाला और रक्तविकार, पित्त तथा कफको नष्ट करने - वाला है ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ वापी | पाषाणैरिष्टका भित्री बद्धः कूपो बृहत्तरः । ससोपाना भवेद्रापी तज्जलं वाप्यमुच्यते ॥ ४६ ॥
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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