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________________ हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२५६) उखाड कर दूसरी जगह लगाए जाते हैं। वह नये तो वीर्यवर्द्धक होते हैं। पुराने होनेसे हल्के हो जाते हैं। परन्तु सब प्रकारके धान्योंमें रोपित धान्य शीघ्र पाकी और गुणोंमें अधिक होते हैं। जो धान्य एक बार काटलेनेसे फिर उनकी जडोंमें उत्पन्न हो जाते हैं वह रूक्ष, शीतल, वलकारक, पित्त कफनाशक, मनको बाँधनेवाले, हल्के और किंचित तिक्त होते हैं।७-१४॥ रक्तशालि । रक्तशालिवरस्तेषु बल्यो वण्यस्त्रिदोषजित् । चक्षुष्यो मूत्रलः स्वयंःशुक्रलस्तृडूज्वरापहः।।१६॥ विषव्रणश्वासकासदाइनुद्वह्निपुष्टिदः ।। तस्मादल्पांतरगुणाः शालयो महदादयः॥ १६॥ सब धानोंमें रक्तशालि अच्छे, बलदायक, वर्णकारक, विदोषनाशक, बक्षुष्य, मूत्रवर्द्धक, स्वरकारक, वीर्यकारक, प्यास, ज्वर, विष, व्रण श्वास कास और दाइको मारनेवाला, अग्निदीपक और पुष्टिकारक होते हैं। दूसरे महाशाली इससे गुणोंमें न्यून हैं ॥ १५ ॥ १६ ॥ ब्राहिधान्यम् । .. वार्षिका कंडिताः शुक्ला बीयश्चिरपाकिनः । कृष्णव्रीहिः पाटलश्च कुक्कुटांडक इत्यपि ॥ १७ ॥ शालामुखी जतुमुख इत्याया ब्रीहयः स्मृताः। कुक्कुटांडाकृतिर्कीहिःकुक्कुटांडक उच्यते ॥ १८॥ कृष्णवीहिः स विज्ञेयो यः कृष्णतुषतंडुलः । पाटलः पाटलापुष्पवर्णको व्रीहिरुच्यते ॥ १९॥ शालामुखः कृष्णशूकः कृष्णतंडुल उच्यते। लाक्षावणे मुखं यस्य ज्ञेयो जतुमुखस्तु सः ॥२०॥
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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