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________________ हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी . । (८५) ततस्तं बलवान् रामो रिपुं जायापहारिणम् । वृतो वानरसैन्येन जघान रणमूर्द्धनि ॥ २ ॥ हते तस्मिन् सुरारातौ रावणे बलगर्विते । देवराजः सहस्राक्षः परितुष्टो हि राघवे ॥ ३ ॥ तत्र ये वानराः केचिद्राक्ष तैर्निहता रणे । तानिंद्रो जीवयामास संसिच्यामृतवृष्टिभिः ॥ ४ ॥ ततो येषु प्रदेशेषु कपिगात्रात्परिच्युताः । पीयूषबिन्दवः पेतुस्तेभ्यो जाता गुडूचिका ॥ ५ ॥ ! प्रथम गिलोय की उत्पत्ति तथा गुणोंको कहते हैं- जब अभिमानी राकसोके अधिपति रावणने कामातुर होकर बलात् सीताका हरण किया, तब जायाके हरनेवाले रावणको बलवान् रामचन्द्र जीने वानरोंको साथ ले जाकर रणमें मारा । बलाभिमानी पौर देवता प्रोंके शत्रु रावण के मारे जानेपर रामचन्द्रजी पर अत्यंत प्रसन्न होकर देवताओं के राजा इंद्रने मृतकी वृष्टि करके वानरों को जिनको रामें राक्षसोंने मार दिया था, फिर जीवित कर दिया । उस समय जिन २ स्थानोंपर वानरोंके शरीर से भ्रष्ट होकर अमृत की बूँदें गिरों वहां २ गुडूची उत्पन्न हो गई ॥ १-५ ॥ - गुडूवी । गुडूची मधुपर्णी स्यादमृतामृतवल्लरी | छिन्ना छित्ररुहा छिन्नोद्भवा वत्सादिनीति च ॥ ६ ॥ जीवंती तंत्रिका सोमा सोमवल्ली च कुण्डली । क्षणिका धारा विशल्या व रसायनी ॥ ७ ॥
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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