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________________ [ ] होता है। वस्तुपालने जैसे आबु तीर्थपर मंदिर बनवाये थे ऐसे गिरिनारपर जो जिन मंदिर बनवाये हैं उनको " वस्तुपाल तेजपाल की हूँ" कहते हैं इस टूकभे मूलनायक श्री पाश्वनाथ स्वामीकी प. तिमा है और उस प्रतिमाजीको प्रतिष्ठा विक्रम संवत्१३०६ में आचार्य श्री प्रद्युम्न मूरिजी के हाथसें हुइ है । वस्तुपाल चरित्र के छठे प्रस्तावमें कितनेक धर्म स्थानोके नाम भी दिये हैं जोकि इन दोनो मंत्रियोंने गिरिनारपर तयार कराये थे-इन भाग्य. चानांका यह सिद्धान्त थाकि-" सति विभवे संच. यो न कर्त्तव्यः" किसी फारसी शायरने लिखा है" बराय निहादन च संगोचजर" ] जो दौलत एकठी करके जमीनमें डाली जाती है उसकी अपेक्षा पत्थर अच्छे, क्योंकि-जब जरूरत पडेगी पत्थर तो किसी काम आ जायेंगे मगर यह दौलत जो जमीनमें गाडरखी है किसी दरकार न आयगी. . : Aho Shrutgyanam
SR No.034195
Book TitleGirnar Galp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherHansvijay Free Jain Library
Publication Year1921
Total Pages154
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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