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________________ ( ५५ ) फिर कभी उसे समान पाठ मिलता है तो उस के मस्तिष्क में अशुद्धि और संदेह की लहर दौड़ जाती है। अर्थ और सुधार प्राचीन पद्धति के अनुयायियों में यह कमज़ोरी है कि वह सुधार की अपेक्षा अर्थ लगाने को ही अच्छा समझते हैं चाहे वह कितनी ही क्लिष्ट कल्पना से लगे। इस पद्धति के कई विद्वानों ने तो यहां तक कहा है कि किसी पाठ का अर्थ लगा देना उसके सुधार से अधिक महत्त्व-पूर्ण और प्रशंसनीय है । दूसरी पद्धति के विद्वान इस के बिलकुल विपरीत हैं। वह कहते हैं कि सुधार ही सम्पादक का कार्य-क्षेत्र है, क्लिष्ट कल्पना से अर्थ लगाना नहीं । वास्तव में दोनों परिस्थितियां ठीक नहीं। सुधार और क्लिष्ट कल्पना दोनों ने ही किसी पूर्व अस्पष्ट पाठ पर प्रकाश डालना है। परन्तु सुधार कठिन कार्य है, इस लिए यह अरिक प्रशंसनीय है । सुधार भी वही उचित है जो प्रस्तुत संदर्भ के साधारण और संगत अर्थ के साथ चले। प्राचीन पद्धति के विद्वानों का परम ध्येय यह रहा है कि जो पाठ जिस रूप में हम तक पहुंचा है उस की उसी रूप में रक्षा करनी चाहिए। वह इस बात में किसी हद तक ठीक भी है क्योंकि यदि सुधार की बागडोर ढीली छोड़ दी जाए, तो यह पाठ को कुछ का कुछ बना देगा । कुछ ही पीढियों में इस बात का निश्चय करना असम्भवप्राय हो जाएगा कि कौन सा पाठ मौलिक था। यही दशा आज हमारे प्राचीन साहित्य की है । इस पर अनेक सुधारकों के हाथ लग चुके हुए हैं। अत: सम्पादक को मूल पाठ का ज्ञान प्राप्त करने के निमित्त घोर परिश्रम करना पड़ता है। महाभारत और सुधार भांडारकर ओरियंटल रिसर्च इन्स्टिच्यूट पूना द्वारा संपादित और प्रकाशित महाभारत आदि पर्व में सुधार बहुत कम किए गए हैं-सात आठ सहस्र श्लोकों में केवल ३५ पाठों का सुधार किया गया है, वह भी शब्दों का, वाक्यों का नहीं । सुधार प्रायः ऐसे हैं जिन से पूर्वापर संगत अर्थ में फरक नहीं पड़ा। जहां सन्देह रहा वहां भी उपलब्ध प्रतियों के किसी न किसी सार्थक पाठांतर को ही ग्रहण किया है। इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि वह अर्थ पूर्णतया संतोषप्रद है, और मौलिक है या नहीं। इस का कारण यह है कि हमें महाभारत काल की परिस्थिति और उस समय प्रचलित व्याकरण आदि के प्रयोगों का पूर्ण ज्ञान नहीं । हम निश्चय पूर्वक नहीं कह सकते कि सारे का सारा महाभारत एक ही भाषा और एक ही शैली में लिखा गया था । हमें उपस्थित शब्दों से अर्थ लगाना चाहिए । जब अर्थ न लगे, तभी सुधार की ओर अग्रसर होना Aho! Shrutgyanam
SR No.034193
Book TitleBharatiya Sampadan Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulraj Jain
PublisherJain Vidya Bhavan
Publication Year1999
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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