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________________ ( ५४ ) .. इस में संदिग्ध पाठों को विशेष रूप से दिखलाना होता है कोई पाठ 'सन्देहपूर्वक स्वीकृत' है या 'सन्देह पूर्वक त्यक्त', इस बात का संकेत भी रहता है। शोधक को प्रायः अपनी बुद्धि से काम लेना चाहिए । उस के लिए इस बात का कोई महत्त्व नहीं कि किसी पाठ को पूर्ववर्ती संपादक या संपादकों ने ग्रहण कर रखा है । हम यह नहीं जान सकते कि उन्हों ने किसी पाठ को निजी ऊहापोह से अपनाया था या पहले सम्पादकों के विचारों से प्रभावान्वित हो कर । अत: अब तक कोई सम्पादक किसी पाठ की मौलिकता को स्वयं सिद्ध न कर ले, वह उसे मूल पाठ में न रखे। इस बात का निर्णय करना बड़ा कठिन है कि लिपिकार की बजाए मूल रचयिता के माथे कौन कौन सी अशुद्धियां मढ़ी जायें । इस विषय में कोई उत्सर्ग नियम नहीं बनाया जा सकता । परिस्थिति के अनुसार ही निर्णय करना चाहिए । यदि मूल प्रति उपलब्ध न हो तो हम लिपिकार और रचयिता के दृष्टि मूलक दोषों में भेद नहीं कर सकते । वास्तव में यह लिपिकार के ही दोष होते हैं क्योंकि यदि रचयिता मूल प्रति को स्वयं लिखे तो वही उसका लिपिकार है। __यदि रचयिता ने कहीं जान बूझ कर अशुद्ध पाठ का प्रयोग किया हो, तो उस का सुधार नहीं करना चाहिए। संदिग्ध पाठ कई विद्वानों का मत है कि संदिग्ध पाठ का निर्णय न करके उसे ज्यों का त्यों छोड़ देना चाहिए। यह सिद्धांत आसानी से प्रयुक्त किया जा सकता है परन्तु मानव स्वभाव के कारण इस का परिणाम अच्छा नहीं होता। प्राचीन साहित्य उस की अशुद्धियों को दूर करने के लिए नहीं पढ़ा जाता, वस्तुतः उस से आनन्द लिया जाता है । पाठक को उसे समझने में जितना कष्ट होगा उतना ही वह उसे कम पढ़ेगा। यदि उस दूषित पाठ को मूल में रहने दिया जाए जिस का सुधार हो सके और जिस का शोधित रूप ऐसा अर्थ दे सके जो पूर्वापर प्रसंग द्वारा आकांक्षित हो, तो द्विविध परिणाम होता है। प्रथम, उस संदर्भ का अभिप्राय ही पाठक के मस्तिष्क से दूर हो जायगा क्योंकि वह उसे समझने का काफ़ी परिश्रम न करेगा। इस का अर्थ यह होगा कि पाठक के लिए उस का अभाव प्राय हो जाएगा। दूसरे, पाठक आगे पीछे के शब्दों के वास्तविक अर्थ को तोड़ मोड़ कर उस संदर्भ से पूर्वापर प्रसंग द्वारा वांछित अर्थ को प्राप्त कर लेगा । अर्थ तो निकल आया परन्तु इस से पाठक को हानि होती है । वह उस पाठ के अर्थ को सम्यग् रूप से नहीं जान पाता, अत: जब Aho ! Shrutgyanam
SR No.034193
Book TitleBharatiya Sampadan Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulraj Jain
PublisherJain Vidya Bhavan
Publication Year1999
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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