SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३४ ) कहते हैं। संपादित पाठ में दूषेत पाठों का समावेश करने से पहले हमें यह सोचना चाहिए कि किसी प्रकार इन को शुद्ध किया या सुधारा भी जा सकता है। इस बात के लिए आवश्यक है कि उपलब्ध प्रतियों के दोषों और उन को पैदा करने वाले कारणों का निर्णय हो । बाह्य दोष___ कुछ दोष ऐसे होते हैं जिन का संबंध प्रति के बाह्य रूप आदि से होता है । प्रति के सतत प्रयोग से और नमी आदि के प्रभाव से प्रमि की लिपिमद्धम पड़ जाती है और कई स्थलों में बिलकुछ मिट जाती है । यदि प्रति पुस्तक रूप में है और ताड़पत्र, भोजपत्र, काग़ज़ आदि पर लिखित है, तो इस के पत्रों के किनारे त्रुटित हो सकते हैं । अतः पत्रे की पंक्तियो के आदिम और अंतिम भाग नष्ट हो जाते हैं । यदि प्रति के पत्रे खुले हों तो इन में से कुछ गुम हो सकते हैं और कुछ उलट पुलट हो सकते हैं। शिलालेख्न मी ऋतुओं के विरोधी प्राधातों को सहते सहते घिन जाते है । जब इस तरह काफ़ी पाठ ष्ट हो चुका हो तो संपादक के पास इस के पुनर्निमणि का कोई साधन नहीं । परंतु वदि इन के संबंध में सहायक सामग्रो उपलब्ध हो तो इस का पुनर्निमाण भी किया जा सकता है । प्रायः छोटो छोटो ऋटेयों को तो संपादक स्वयं हो ठीक कर लेता है। आंतरिक दोन कुछ दाप उपलब्ध पाठ में हो उपस्थित होते हैं। इन दोषों का मुख्य कारण लिपिकार होता है; परंतु कहीं कहीं शोधक भी होता है । इन दोषों का जानने क लिए हमें चाहिए कि किसी विशेष देश, काल, लिाप, विषय आदि की उन प्रतियों का सूक्ष्म अवलोकन करें जिन के आदर्श भी विद्यमान हों और इन के आधार पर साधारण दोषों का विवेचन करें। इस से समान देश, काल, लिपि, विषय आदि को प्रतियों के दोषा का समाधान ठोक रीति से हो सकेगा। १. देखो-एयस्य य कुलिहियदोसो न दायको सुयहरेहिं । किंतु जो चेव एयस्स पुवायरिसो आसि तत्थेव कत्था सिलोगो कत्थइ सिलोगद्धं कत्थइ पयक्खरं कत्थइ अक्खरपंतिया तस्थइ पनगपुट्टिय (या) कत्थइ बे तिनि पन्नगाणि एवमाइ बहुगंधं पारंगलियं ति । महानिशीथसूत्र के एक हस्त लेख से-डिस्क्रिप्तिब कैटॅलॉग श्राफ दग वमट कालेक्षनज माफ मैनुस्क्रिस डिपोजिटेड एट दि भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इन्स्टिच्यूट, भाग १७, २, पृ० ३२ । । Aho ! Shrutgyanam
SR No.034193
Book TitleBharatiya Sampadan Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulraj Jain
PublisherJain Vidya Bhavan
Publication Year1999
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy