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________________ वि. प्र. भूमिमें कुशा और काश हों वह ब्राह्मणोंको और जिसमें दूब हो वह क्षत्रियोंको श्रेष्ठ है ॥ ३४ ॥ जिसमें फल पुष्प लता हों वह वैश्योंको 8 और जिसमें तृण हों वह शुद्रोंको श्रेष्ठ है, जो भूमि नदीके घात ( कटाव) के आश्रयमें हो और जो बडे बडे पत्थरोंसे युक्त हो ॥ ३५ ॥ और जो पर्वतके अग्रभागसे मिली हो और जिसमें गढे और छिद्र हों जो टेडी और सूपके समानहो, जिसकी कान्ति लकुट ( दण्ड )के समानहोअ.1 और जिस भूमिका निन्दित रूप हो । ३६ ॥ और जो भूमि मूसलके समान और महाघोर हो और जो भल्ल भल्लक (रीछ ) से युक्तहो और फलपुष्पलता वैश्या शूद्राणां तृणसंयुता । नदीघाताश्रितां तद्वन्महापाषाणसंयुताम् ॥ ३५ ॥ पर्वतायेषु संलग्नां गा विवरसंयु ताम् । वक्रां मूर्यनिभा तबल्लकुटाभां कुरूपिणीम् ॥ ३६॥ मुसलाभां महाघोगं वायुना वापि पीडिताम् । भल्लभल्लूकसंयुक्तां मध्ये विकटरूपिणीम् ॥३७॥ श्वशृगालनिभां रूक्षां दन्तकैः परिवारिताम् । चैत्यश्मशानवल्मीकधूर्तकालयवर्जिताम् ॥ ३८॥ चतुष्पथमहादेवमंत्रिनिवासिताम् । दूराश्रितां च भूगर्तयुक्तां चैव विवर्जयेत् ॥ ३९ ॥ इतिभूमिलक्षणम् ॥ अथ फलानि ॥ स्ववर्णगन्धा सुरसा धनधान्यसुखावहा । व्यत्यये व्यत्ययफला अतः कार्य परीक्षणम् ॥ ४० ॥ जिसका मध्यमें विकट रूप हो ॥ ३७ ॥ और जो कुत्ता गीदडके समानहो और जो रूखी और दांतोंसे युक्त हो और चैत्य श्मशान वॉमी और जंबूकका स्थान इनसे रहित हो ॥ ३८॥ और चतुष्पथ ( चौराहा ) महावृक्ष और देव मंत्री (भत आदि ) इनका जिसमें निवासहो और जो नगरस दरहो और जो गहोंसे युक्तहो ऐसी भूमिको वर्जदे ॥ ३९ ॥ इति भूमिलक्षणम् ॥ इसके अनन्तर फलोंका वर्णन करते हैं-जिस ॥३॥ भूमिमें अपने वर्णकी गंध होय और जिसका सुंदर रूपहो वह भूमि धन धान्य और सुखके देनेवाली होती है और इससे विपरीत हो तो
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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