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________________ पाइअ कहा संगहे । ॥ ३ ॥ 1924-36 सम्पादकीय - वक्तव्य 11 पाइअकहा संगह नामना अद्यावधि अप्रगट आ ग्रन्थमां श्रीपद्म चन्द्रसूरिशिष्यविरचित विक्रमसेनचरित्रनी अंदर मावती चौद कथाओ पैकी चार कथाओनो संग्रह छे. शक्य तपास करवा छतां पण संपूर्ण विक्रमसेनचरित्र प्राप्त न थवाथी जे बार कथाओ मळी ते उपयोगी अने भाववाही लागवाथी संग्रहित करी आ मन्थरूपे मुद्रित करावी छे. ग्रन्थ परिचय - आ प्रन्थमां संग्रहित कथाओ विक्रमसेनचरित्रनी छे. ते परिश्रमां अन्यान्यविषयनी चौद कथाओ छे, जे नीचे आपला लोको उपरथी जाणी शकाशे " तिसलाकुच्छिसरोवर कलहंसं वीरजिणवरं नमिउं । दुजय अंतररिउविजयपत्तं सिवरमणी सोखमरं ।। १ ।। X X X X श्यणत्तयजुत्ताणं गुरूणं [ सिरि ] पउमचंदसूरीण | मंदमई वि पसाएण किं पि जंपेमि उवएसं ॥ ५ ॥ X X X X अह विक्कम सेणनराहिवस्स पभणेमि चरियमिणं । सम्मत्तलाह ु सङ्घट्टविमाणगमनंतं ।। २० ।। इह पुढं सम्मत्ते चरियं धर्ण सिट्टिणो समक्खायं । अह दाणे घणदेवो धणदत्तो भाउणो दोनि ॥ २१ ॥ सम्पादकीय वक्तव्य ॥ ३ ॥
SR No.034180
Book TitlePaiakaha Sangaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay, Kantivijay
PublisherVijaydansuri Jain Granthmala
Publication Year1952
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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