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________________ rep4-440441 d2e- 143400--ARASppna. 200-44-200PMEGPSE जीव एकलोज उपजेछे. अने एकलोज नाश पामेछे, एकलाने मरण होयरछे भने एकलोज जीव कर्म रज रहित थइने मोक्ष पामछे ॥१४॥ को करे कम्मं ॥ फलमधिसिक समणहवइ ।। इक्का जाय मर ॥ पराइकर जा ॥१५॥ एकलो कर्म करेछे, तेनुं फल पण एकलोन भवेछे, एकलो जन्मेछे ने मरेछे ने परलोकमा एकलोज उत्पन्न थायछे ॥१५॥ को मे सासन अप्पा ॥ नाण दसण लस्कयो । सेसा मे बाहिरा नावा ॥ संघसंजोग सरकणा ॥१६॥ ज्ञान, दर्शन, लक्षणवंत एकलो मागे आत्मा शाश्वनो छ बाकी मार वाहीरभाव सर्वे मंयोगस्प छे. संजोग मला जीवेण ॥ पत्ता पुरक परंपरा ॥ तम्हा संजोग संबंधं ॥ सवं तिविदण वो सिरे ॥१७॥ संयोग छे मूल जेनुं एवी जीवे दुःखनी परंपरा पामी ते माटे सर्व संयोग संबंधने त्रिविधे त्रिविधे वामिगळु ॥१७॥ 2-424343 stud.250-50-20:3
SR No.034177
Book TitleMurkhshatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Hansraj Shravak
PublisherHiralal Hansraj Shravak
Publication Year1926
Total Pages154
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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