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________________ Su मा कासि तं पमायं ॥ संमते सब रक नामलए ॥ जं सम्मत पठाई ॥ नाल तव विरिय चरणाई ॥ ६३ ॥ तुं सर्व दुःखने नाश करनार एवा सम्यक्त्वने विषे प्रमाद न करीश, जे कारण माटे सम्यकत्वने आधारे ज्ञान, तप, वीर्य अने चारित्र रहेलां छे. ।। ६३ ।। नावारा पिम्मागु ॥ राय सुगुणागुराय रत्तो श्र ॥ धम्मागुराय रतो ॥ श्र दोसु जिणसासणे निचं ॥ ६४ ॥ जेवोतुं पदार्थना उपर अनुराग करे छे, प्रेमनो अनुराग करे छे अने सद्गुणना अनुरागने विषे रक्त थाय छे तेवोज जिन शासनने विषे हमेशां धर्मना अनुरागवडे करीने रक्त था. ॥ ६४ ॥ दंसण जो जो ॥ नहु जो दोइ चरण पनो ॥ दंसणमपत्तस्स न ॥ परियमणं नहि संसारे ॥ ६५ ॥ सम्यकत्व भ्रष्ट ते सर्वथी भ्रष्ट जाणवो, पण चारित्रथी भ्रष्ट थएलो बधायी भ्रष्ट थतो नथी केमके सम्यक्त्व पामेलो जे जीव छे तेने संसारने विषे झाझुं परिभ्रमण नथी ॥ ६५ ॥ दंसण जो जो ॥ दंसण जस्स नचि निवाणं ॥ सिकंति चरण रदिया । दंसण रहिया न सिद्यंति ॥ ६६ ॥ 3445&&Fu+v¢ Fren Siste⭑← out but
SR No.034177
Book TitleMurkhshatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Hansraj Shravak
PublisherHiralal Hansraj Shravak
Publication Year1926
Total Pages154
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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