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________________ उदा. ह्या महापुराणमां, जो त्यां विस्तार ॥ विचार कहुं हवे वर्णवी, निश्चय करी निरधार ॥ १ ॥ नुमानी वली स्थिति कहुं, निरंजन कहे मूढ लोक ॥ पूर्व नवे बहु परे जम्यो, निर्नामिक हुई सोक ॥ २ ॥ दुःखे दीक्षा याचरी, राज रिद्ध देखी ताम || निदान बांध्यो निर्नामिके, स्वर्ग लह्यो सुखठाम ॥ ३ ॥ तिहां थकी चवी करी, वसुदेव देवकी चंग ॥ कुखे यावी अवतर्यो, कृष्ण हुई उत्तंग ॥ ४ ॥ त्रण खंड साध्या जला, सेवे सुर नर राय ॥ न्यायवंत दामोदरो, परनारी सहु माय ॥ ५ ॥ लाख बेतालीश रथ जला, तेटला गजवर सार ॥ नव कोम घोमा हणहणे, जोगवे त्रिखं मोरार ॥ ६ ॥ सोल सहस्र राणी जली, तेदशुं सुख विलास ॥ लोक लंपट लंपट लवे, परनारीशुं निवास ॥ ७ ॥ तेटला भूप सेवा करे, सुर किंकर बेसार ॥ राज रिद्ध केशव तणी, कहेतां न लहुं पार ॥ ८ ॥ श्रावती. चोवीशीए जलो, अरिहंत होशे देव ॥ पंच कल्याणकनो धणी, सुर नर करशे सेव ॥ ५ ॥ पवनवेग तुमे सांजलो, बलि बंधन विचार | जिनवाणी बे रुाडी, संखेपे कहुं सार ॥ १० ॥
SR No.034172
Book TitleDharmpariksha Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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