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भक्ति करवाथी अनंतगणुं फल कहेलुं छे. ए प्रमाणे वीतरागनी पूजा करवाना फलना दृष्टांतो शास्त्रकार महाराजाये जैन पुस्तकोने विषे अष्टप्रकारी, सत्तरमेदि, एकवीशप्रकारी पूजाओने विषे अनेक कहेला छे. माटे उत्तम जीवोये आत्महित | साधवा हस्तकमलने विषे प्राप्त थयेल निधानना समान पूजाने घणां ज आदरमान अने आत्माना सत्य तेम ज शुद्ध भावथी आनंद सहित करवी जोइये. परमात्मानी पूजा संबंधे देवपालनुं दृष्टांत कहे छे.
अचलपुर नगरने विष सिंहराजाने मान्य जिनदत्त नामनो श्रेष्टि वसतो हतो, तेनो एक देवपाल नामनो नोकर हतो, ते निरंतर तेना गोकुलने लइ वगडाने विषे चारवा जतो हतो, एक दिवस वर्षाऋतुने विष गायोने चारता नदीना कांठाने विषे रेतीमां दबाइ रहेल श्री ऋषभदेव स्वामीनी मनोहर मूर्ति देखीने बहु ज आनंद पाम्यो, त्यारबाद नदीना कांठाने विषे एक वृक्षना नीचे तृणनी झुपडी-पर्णकुटी बांधी अने तेमां आदिनाथजीना बिंबने स्थापन करी, निरंतर म्हारे आ प्रभुनी पूजा करवी अने ते शिवाय म्हारे भोजन करवू नहि आवो नियम को अने निरंतर परमात्मानी जल तथा पुष्पवडे पूजा करवा मांडयो, आवी रीते पोताना नियमने प्रतिपालन करता वर्षाऋतुनो समय आव्यो अने अतिवृष्टि थवाथी नदीमां बहु ज पाणि आव्यु, तेथी परमात्मानुं पूजन करवा सामे कांठे जइ शक्यो नहि. तेथी शोकसहित पोताने घरे ज रह्यो अने नियम होबाथी भोजन त्याग कर्यु. त्यारे श्रेष्टिये कयुं के हे भद्र ! अमारा घरने विषे जिनेश्वर महाराजाना बिंबो |छे तेनुं पूजन करी भोजन कर. तेना वचनथी जिनपूजा तो करी, पण भोजन न कयु, हवे आठमे दिवसे पाणि नदीमां
ओछु थवाथी प्रातःकाले उठी पूजा करवा चाल्यो, त्यां जइने पूजा करवा तृण कुटीरमा प्रवेश करे छे तेवामां भयंकर सिंहने