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चौमासी व्या
काठीयानुं स्वरूप॥
ख्यान ।
॥८८॥
धारण करनार जीव संसारनी वृद्धि करनार मिथ्यात्व मोहनीय कर्मने बांधे छे. तथा खराब आहारादिकने ग्रहण करनार, तथा मिथ्यात्व, महापरिग्रह, आरंभने विषे रक्त, रौद्र परिणामी अने पाप बुद्धिवालो नरकना आयुषने बांधे छे. तथा उन्मार्गनो दर्शक अने मार्गनो नाश करनार, आर्तध्यानने धारण करनार, बहु ज कपट रक्त जीव, तिथंच गतिना आयुष्पने बांधे छ, तथा स्वभावथी ज स्वल्प कषायी, दान रक्त, प्रकृतिथी भद्रिक विनित, मध्यमादिक गुणोथी, जीव मनुष्यना आयुष्यने बांधे छे, तथा अणुव्रत अने महाव्रतादिकनुं प्रतिपालन करवाथी, बाल तप तथा अकाम निर्जराथी, जे
जीव सम्यक दृष्टि होय, ते देवताना आयुषने बांधे छे. तथा मन, वचन, कायाथी वक्र प्रकृतिवालो, तथा गुण द्वेषी, तथा | गारवथी बंधायेल जीव, अशुभ नामकर्मने बांधे छे, अने तेथी विपरीत जे होय ते शुभ नामकर्म बांधे छे, तथा अरिहंतादिकने विषे जे भक्त होय तथा सुपात्रने विषे रुचिवालो. तेम ज प्रतर्नु कषाय अने गुणरागी जीव, उंचगोत्रने बांधे छे अने
तेनाथी विपरीत जीव नीच गोत्रने बांधे छे, तथा प्राणि वधने विषे रक्त, तथा जिनपूजा दान भोगादिकने विष विघ्न करभा | नार जीव, अंतराय कर्मने बांधे छे अने तेथी इच्छित लाभने पोते मेळवी शकतो नथी. ए प्रकारे पापकर्म बंधना हेतुभूत,
अने भव भ्रमण करावनारी जे प्रकृतियो छे, तेने विवेकी अने आत्महितना इच्छक पुरुषोये त्याग करवा लायक छे. वळी ज्ञानादिक गुणना वश वर्तिपणाथी समग्र कर्म क्षय थाय छे अने जीवोने निर्वाण प्राप्त थाय छे, माटे ज्ञानादिकने विषे उद्यम करवो | युक्त छ, संसार दावानलने विषे बलता जीवोने शांत करवामां ज्ञान अमृत समान छे. ज्ञान मिथ्यात्वरूपी अंधकारने नाश करवामां सूर्य समान छे, ज्ञान इंद्रियोरूपी मृगलाने बांधवामां पाश समान छे. ज्ञान चित्तरूपी सर्पने वश करवामां गारुडी मंत्र
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॥ ८८॥