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________________ [ द्रव्यानुभव- रत्नाकर। ६८ ] कोई नहीं । एक अधर्मस्तिकाय स्थिति कराने में सहाय देती है, बाकी ५ द्रव्य नहीं । नया पुराना करनेमें एक काल द्वव्य है बाकी ५ द्रव्य नहीं । मिलन, विखरन, पूरन, गलन, एक पुद्गल द्रव्यमें है, बाकी ५ द्रव्यमें नहीं । इसरीति से इनका साधम वैधमपना कहा । अब ११ बोल करके इनकी जो क्रिया है उसको सिद्ध करते हैं। गाथा "परणामी जीवमुता सपएसा एगीवत किरि आय निञ्चकारणकता सव्वगद इयर अप्पबेसा” अर्थ-निश्चय नय अर्थात् शुद्ध व्यवहारसे छओं गव्य अपने अपने स्वभावमें अर्थात् परिणामी हैं, परन्तु अशुद्ध व्यवहार और लौकिक व्यवहारसे तो जीव और पुद्गल दोही द्रव्य परिणामी दीखे हैं, और आकाश, धर्म, अधर्म और काल यह चार द्रव्य अपरिणामी दीखे हैं । तैसे ही इन छः द्रव्यमें एक जीव द्रव्यतो चेतन अर्थात् ज्ञान स्वरूप, बाकीके ५ द्रव्य अजीव अर्थात् जड़रूप हैं । तैसेही एक पुद्गल द्रव्य मूर्ति बन्त अर्थात् रूप वाला है और ५ द्रव्य अमूर्तिक अर्थात् अरूपी हैं। ( प्रश्न) तुम जो अरूपी कहते हो सो पर्दाथके अभाव को कहते हो कि पर्दाथके होते भी अरूपी कहते हो । ( उत्तर ) भो देवानुप्रिय ! यह तेरा प्रश्न करना ठीक नहीं है; जिस वस्तुका अभाव है उस बस्तुका तो कुछ कहना सुनना बनता ही नहीं क्योंकि जो पदार्थ ही नहीं है, उस पदार्थका रूपी अरूपी कथन करना सो तो बन्ध्याके पुत्रके अथवा मनुष्यके सींगके समान है। इसलिये पदार्थ के अभाव का कहना ही नहीं बनता, और जो तुमने कहा कि पदार्थके रहते भी अरूपी कहते हो सो पदार्थ है और उसको जैन शास्त्रोंमें अरूपी कहा है इसलिये हमने भी इसको अरूपी कहा । (प्रश्न ) तुमने जो कहा कि जैन शास्त्रोंमें अरूपी कहा है इस लिये हमने भी अरुपी कहा; सो यह तुम्हारा कहना तो जैनियोंके सिवाय दूसरा कोई नहीं मानेगा, हाँ अलबत्ता जो कोई युक्ति देओ सो युक्ति बनती नहीं हैं, क्योंकि जो पदार्थ मौजद है उसको अरूपी कहना ठीक नहीं और जो तुम अपने पदार्थ को अरूपी मानते हो तैसेही हम Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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