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________________ उपोद्घात । यह आनंदका विषय है कि वर्तमानकाल में विद्याकी उन्नतिके साथ ही धार्मिक विषयोंके तरफ भी जन-समुदायकी रुचि होने लगी है । इङ्गरेजी शिक्षाके प्रभावसे विद्वान लोगोंके सिवाय साधारण लोगों में भी तर्क, वितर्ककी प्रवृत्ति विशेष होती जाती है और विद्वानों को तो तत्वविचार - पदार्थ - निर्णयके ऊपर विवेक शक्तिको विशेष काममें लानी पड़ती है, क्योंकि विवेकका लक्षण ही सत्यासत्य - - विचार - शीलता है । जब व्यहारिक विषयो में भी विवेककी आवश्यकता प्रथम हैं, तब तत्वनिर्णय में तो इसकी मुख्य आवश्यकता होनी स्वाभाविक ही है। क्योंकि विवेकी पुरुष ही निष्पक्ष होकर सत्यासत्यका निर्णय करके सत्यको ग्रहण करता है - और असत्यको छोड़ता है । और यह प्रवृत्ति तब ही होती है कि निर्णयके बख्त यह विचार हृदयमें रक्खे कि 'सच्चा सो मेरा' अर्थात् हेतु-युक्ति की तरफ अपने विचारको ले जावें । ऐसा न करें के 'मेरा सो सो सच्चा' अर्थात् हेतु-युक्तिको अपने विचारकी तरफ खींचनेकी व्यर्थ कोशिष न करें, क्योंकि ऐसे विचारवालोंको यथार्थ तत्व-ज्ञान होना मुश्किल है । अब विचार इस बातका करना है कि ऐसा निर्णय करनेका मुख्य मन क्या है ? क्योंकि वर्तमान कालमें हरेक दर्शन वालोंमें पदार्थके निर्णय में मतभेद है। जैन दर्शन में भी इस पंचम- कालमें केवल - ज्ञानियों, मनपर्ययज्ञानियों, अवधिज्ञानियों और पूर्वधरोंका अभाव है, और 'यथार्थ सिद्धान्तका रहस्य समझनेवाले महात्माओंका योग मुश्किल से प्राप्त होता है। इससे यह स्पष्ट है कि उसका मुख्य साधन आत्मतत्वके ग्रन्थ है, जिनसे यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके पदार्थका निर्णय कर सकते हैं। Scanned by CamScanner "
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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