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________________ [ द्रव्यानुभव-रत्नाकर | ४] जो जिन आगमके रहस्य से अनभिज्ञ हैं और जिन्होंने गुरुकुलवास नहीं सेवन किया, और अन्य मतके पण्डितोंसे न्याय व्याकरणादि पढ़कर बुद्धिमतासे पंडित बन बैठे उनको कुछ स्याद्वाद जिन आग• मका रहस्य प्राप्ति न होगा, इसका रहस्य तो वेही जानेंगे कि जिन्होंने गुरुकुलबासको सेया होगा । इसलिये हे भव्य प्राणियों यदि तुमको जिनमार्गकी इच्छा हो तो जिन आज्ञाकी आराधना करो जिससे 1 तुम्हारा कल्याण हो । ( प्रश्न ) अजी आपने तो निश्चय और शुद्ध व्यवहारको एक ठहराकर व्यवहारकी मुख्यता रक्खीं और निश्चयको उसके अन्तर्गत कर दिया । परन्तु शास्त्रोंमें तो निश्चय और शुद्ध व्यवहार जुदा जुदा कहा है। फिर आप निश्चयको उठाकर व्यवहारको ही मुख्य क्यों कहते हैं ? (उत्तर) भो देवानुप्रिय ! हमने तो घातु प्रत्ययसे शब्दका अर्थ करके तुमको दिखाया है, और निश्चयको तुमलोग पकड़कर व्यवहारको उठाते हो। इसलिये हमने तुम्हारे वास्ते निश्चय व्यवहारकी व्यवस्था दिखाई है, क्योंकि व्यवहारके अतिरिक्त निश्चय कुछ वस्तु ही नहीं ठहरती । क्योंकि देखो व्यवहारसे तो वस्तुको पृथक (जुदा ) किया और निश्चयने उस जुदी जुदी वस्तुको इकट्ठा कर लिया। इस हेतुसे निश्चय और शुद्ध व्यवहार एक ही है कुछ भिन्न भिन्न नहीं हैं। हाँ अलवत्ता जिस निश्चयको तुमलोग पकड़ बैठे और व्यवहार अर्थात् शुद्ध व्यवहारके अञ्जान शुभ व्यवहारके उठानेवाले भोले जीवोंको त्याग पचखानका भङ्ग कराकर मालखाना और इन्द्रियोंके विषय भोगकर मोक्ष जाना, बतलानेवाली होनेसे इस तुम्हारीं निश्चय गधाके सींग न होनी वस्तुको क्योंकर माने, सो इसके उठजानेसे तो हमारे कुछ हानी नहीं, और श्रीसर्वशदेव बीतराग जिनेन्द्र भगवान भर्हन्त श्रीबद्ध मान स्वामीकी कही हुई निश्चय और व्यवहार तो उठी नहीं किन्तु उनके कहे हुए आगम अनुसार प्रतिपादन करी है । नतु स्वमति कल्पनासे । Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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