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________________ [द्रव्यानुभव-रत्नाकर। १४६] विषयके साथ सम्बन्ध होनेसे भी ज्ञान होय नहीं। न्याय मनको परम अणु अर्थात् सबसे छोटा कहा है, इसलिये एक भनेक इन्द्रियोंसे मनका संयोग संभवे नही। इस कारणसे विषयका अनेक इन्द्रियोंसे एक कालमें ज्ञान होय नहीं, क्योंकि जोक का हेतु (कारण) इन्द्रिय ओर मनका संयोग है, सो कदाचित पण कालमें होय तो एक कालमें अनेक इन्द्रियोंका विषयसे सम्बन्ध होने पर एक कालमें अनेक शान हो सकें। .... . इस रीतिसे नेत्र-आदि इन्द्रियोंका मनसे संयोग चाक्षुषादि शानका असाधारण कारण है। तैसे ही त्वचा ज्ञानमें त्वक्-मनका संयोग कारण है, रस-शानमें रसना और मनका संयोग कारण है, घ्राणज-ज्ञानमें घाण और मनका संयोग कारण है, श्रोत्र-ज्ञानमें श्रोत्र और मनका संयोग कारण है। .. - इस रीतिसे श्रोत्र मनका जो संयोग श्रोत्रसे उत्पन्न होता है, सो श्रोत्रज शानका जनक है, इसलिये व्यापार है। आत्मा-मनका संयोग सर्व ज्ञानमें कारण ( हेतु ) है। इसलिये पहले आत्म और मनका संयोग होय, तिसके अनन्तर(पीछे) जिस इन्द्रिय से ज्ञान उत्पन्न होगा, उस इन्द्रिय से आत्म-संयुक्त मनका संयोग होय है, फिर मन-संयुक्त इन्द्रियका विषयसे सम्बन्ध होता है, तब बाह्य-प्रत्यक्ष ज्ञान होय है। इन्द्रिय और विषयके सम्बन्ध बिना बाह्य प्रत्यक्ष ज्ञान होय नहीं। विषयका इन्द्रियसे सम्बन्ध अनेक प्रकारका है सो ही दिखाते हैं। जिस जगह शब्द का श्रोत्रसे प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, तिस जगह केवल शब्द ही श्रोत्र-जन्य शानका विषय नहीं है, किन्तु शब्दके धर्म शब्दत्वादिक भी उस ज्ञानके विषय हैं, शब्दका तो श्रोत्रसे समवाय सम्बन्ध है, और शब्दके धर्म जा शब्दत्वादिक तिससे श्रोत्रका समवेत-समवाय सम्बन्ध है। क्या गुण-गुणी की तरह जातिका अपने श्राश्रयमें समवाय सम्बन्ध । इसलिये शब्दत्व जातिका. शब्दसे समवाय सम्बन्ध है। समय सम्बन्ध से जो रहनेवाला तिसको समवेत कहते हैं। सोश्रोत्रम वाव सम्मपाले रहनेवाले जो शब्दसे श्रोत्र-सम्बन्ध है, तिस प्रोत्रा Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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