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________________ [ द्रव्यानुभव-रत्नाकर ११६] 1 अब विवेचन व्यवहारके दो भेद हैं। एक तो स्वय विवेचनव्यवहार, दूसरा पर ग्रहण करानेके वास्ते विवेचनब्यबहार । सो स्वय विवेचनके दो भेद हैं। एक तो उत्सर्ग, दूसरा अपवाद । सो उत्सर्ग स्वय विवेचन व्यबहार निर्विकल्पसमाधि रूप है, दूसरा अपवादसे बिकल्प सहित शुकलध्यानका प्रथम पाया स्वय बिबेचन अपवाद व्यवहार । अब पर ग्रहण करावनरूप विवेचनव्यवहार कहते हैं कि - यद्यपि ज्ञान, दर्शन, चरित्र आदि आत्मासे अभेद होकर एक क्ष ेत्र अर्थात् आत्म प्रदेशमें रहते हैं, परन्तु जिज्ञासुके समझानेके वास्ते ज्ञान, दर्शन, चारित्र को जुदा कहकर आत्म बोध कराना, इसरीतिसे शुद्ध व्यबहार कहा ||. अब अशुद्धब्यवहारके भेद दिखाते हैं कि - अशुद्ध व्यबहारके दो भेद हैं एकतो संश्लेषित अशुद्धव्यवहार, दूसरा असंश्लेषितअशुद्ध व्यवहार ! प्रथम संश्लेषितअशुद्धव्यवहार उसको कहते हैं कि - यह शरीर मेरा है, मैं शरीरका हूं इसरीतिका जो कहना उसका नाम असद्भूत संश्लेषित व्यवहार है । अब दूसरा असंश्लेषितअशुद्ध व्यवहार कहते हैं कि- धनादिक मेरा है, यह असंश्लेषितअशुद्धव्यवहार हुआ, यह भेद महाभाष्य में कहे हैं। अब दूसरी रीति से भी इस अशुद्धव्यवहारके भेद कहते हैं कि इस अशुद्धव्यवहारके मूलमें दो भेद हैं । एक तो बिबेचनरूप अशुद्ध व्यवहार, दूसरा प्रवृतीरूप अशुद्धव्यवहार । सो वह बिवेचनरूप अशुद्धव्यवहार अनेक प्रकारका है । दूसरा जो प्रवृत्तीरूप अशुद्ध व्यवहार है उसके दो भेद हैं। एकतो साधनरूप प्रवृत्ती, दूसरी लौकिक प्रवृत्ती । सो एकतो लोकउत्तरसाधन प्रवृत्ती, आत्म स्वरूप जाने बिना धर्मादिक द्रव्य क्रियाका करना, दूसरी लौकिक प्रवृत उसको कहते हैं कि जिस २ देश, जिस २ कुलमें, तिस २ प्रवृत्त . अनुसार चले । अब तीसरी रीति और भी इस अशुद्धव्यवहारकी दिखाते हैं कि इस अशुद्धब्यवहारके चार भेद हैं। एकतो शुभव्यवहार, २ अशुभ व्यवहार, तीसरा उपचरितव्यवहार, चौथा अनुपचरितव्यवहारः । Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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