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________________ C द्रव्यानुभव- रत्नाकर । ] है कि जैसे धर्मास्तिकाय में चलनसहायआदि गुण है और 'अधर्मास्तिकाय में स्पिरसहायआदि गुण, आकाशमै अवगाहनादि गुण, पुद्गल में मिलन बिखरन आदि गुण, कालमें नया पुराना वर्त्तनादि गुण, इत्यादिक इन सर्वको वस्तुणततत्बको जानना उसका नाम परवस्तुगततत्वज्ञानेन व्यबहार हैं। इसरीतिले इसके भेद कहें। [ ११५ और रीति से भी इस बस्तुगतव्यबहार के तीन भेद होते हैं सो भी दिखाते हैं। एकतो द्रव्यव्यवहार, दूसरा गुणब्यबहार, तीसरा स्वभावब्यबहार ? सो द्रव्यव्यबहार तो उसको कहते हैं कि जो जगत् में द्रव्य (पदार्थ) हैं उनको यथाबत जानें, 'इस भेदके कहने से बौद्धादि मतका निराकरण है। दूसरा गुण व्यबहार उसको कहते हैं कि-गुण गुणीका सम्बाय सम्बन्ध है, उसको यथावत जाने और गुण गुणीका 'परस्पर भेद अभेद दोनोंको माने, जो एकान्त भेदको ही माने तो दूसरा द्रव्य ठहरे सो दूसरा द्रव्य गुण है नहीं, किन्तु गुणसे हीं गुणीकी प्रतीत होती है, इसलिये एकान्त भेद नहीं। और जो गुणसे गुणीको एकान्त अभेद ही माने तो गुणीके बिना गुणकी प्रतीत होय नहीं, क्योंकि जब गुण और गुणीका एकस्वरूप हुआ और भेदको माने नहीं तो उस गुणीकी प्रतीत क्योंकर होगी, इसलिये एकान्त अभेद नहीं, इस गुणव्यवहार से वेदान्तमतका निराकरण है। क्योंकि वेदान्त मतवाला आत्माका जो ज्ञानगुण उसको एकान्त करके गुण गुणीका अभेद मानता है, इसलिये गुण व्यवहार उसके निराकरण के वास्ते कहा । तीसरा स्वभावव्ययहार कहते हैं कि- द्रव्यमें जो स्वभाव हैं उसको यथावत जानें, इस स्वभाव व्यवहार कहने से नैय्यायकमतका निरा:करण हैं। इसरीतिले बस्तुगतब्यबहारके तीन भेद कहे। Scanned by CamScanner अब इस शुद्धब्यवहारके और रीतिले भी भेद दिखाते हैं कि एक तो साधनव्यवहार, २ बिवेचनव्यबहार ? सो साधनव्यबहार तो उसको कहते हैं कि उत्सर्गमार्ग से नीचेके गुणस्थानको छोड़े और ऊपरके गुणस्थानमें श्रेणी आरोहणरूप करके समाधिमें होकर आत्म रमण करें |
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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