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________________ ग्रन्थकार की जीवनी। तरफ रवाना हुआ। फिर दिन में तो राजगिरी में आहारपानी लेता और रातको पाहाड़के उपर चला जाता। सो कई दिन पीछे एक रात्रिमें एक साधूको एक जगह बैठा हुवा देखा । मैं पहले तो दूर बैठा हुआ देखता रहा। थोड़ी देर में दो चार साधु और भी उनके पास आये। उन लोगोंकी सब बातें जो दूरसे सुनो तो, सिवाय आत्म-विचारके कोई दूसरी बात उनके मुंहसे न निकली, तब मैं भी उनके पास जा बैठा। थोड़ी देरके पश्चात् और तो सव चले गये पर जो पहले बैठा था वही बैठा रहा। मैंने अपना सब वृत्तान्त उससे कहा तो उसने धैर्य दिया और कहने लगा तुम घबराओ मत, जो कुछ कि तुमने किया वह सब अच्छा होगा। उसने हठयोग की सारीरीति मुझे बतलाई, वह मैं पांच में प्रश्नके उत्तरमें लिखुंगा। 'एक बात उसने यह कही कि जिस रीतिसे बतलाउं उस रीतिसे श्रीपावापुरीमें जो श्री महावीरस्वामीको निर्वाण-भूमि है वहां . जाय कर ध्यान करोगे तो किंचित् मनोरथ सफल होगा, पर हठ मत करना, उस आशयसे चले जावोगे तो कुछ दिनके बाद सब कुछ हो जायगा, और जो तुम इस नवकारको इस रीतिसे करोगे तो चित्तकी चंचलता भी मिट जायगी, और हम लोग जो इस देश में रहते हैं सो यही कारण है कि यह भूमि बड़ी उतम है।' जब मैंने उनसे पूछा कि क्या तुम जैनके साधु हो? परन्तु लिंग (वेश) तुम्हारे पास नहीं, इसका क्या कारण है? तो वह कहने लगा कि भाई, हमको श्रद्धा तोश्री वीतराग के धर्म की है, परन्तु तुमको इन बातोंसे क्या प्रयोजन है ? जो बात हमने तुमको कह दी है, यदि तुम उसको करोगे तो तुमको आप ही श्रीवीतराग के धर्मका अनुभव हो जायगा, किन्तु हमारा यही कहना है कि पर-वस्तु का त्याग और स्ववस्तुको ग्रहण करना और किसी भेषधारीकी जालमें न फंसना। इतना कहकर वह वहांसे चला गया। मैं भी वहाँसे दिन निकलने पर पाहोड़से नीचे उतरा और आसपासके गांवों में फिरता रहा। पीछे दो तीन महीने के बाद विहारमें जायकर श्रावकोंसे प्रबन्ध करके पावापुरीमें चौमासा किया। सोवनपांडे, जो कि पावापुरीका पुजारी था उसकी सहायतासे जिस मालिये ( मकान ) में 'कपूरचन्दजी' Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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