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________________ प्रन्थकार की जीवनी। प्रकार की बाते और रहस्य समझ में आये। चौमासा पूरा होने पर मैंने वहांसे चलनेका विचार किया तो शिवलालजी यती बहुत पीछे पड़े कि आप रेलमें बैठकर जाईये, नहीं तो रास्तेमें बहुत परिश्रम भुगना पड़ेगा। पर मैंने उत्तर दिया कि 'मैं पैदल ही जाउंगा, क्योंकि एक तो मुझे देशाटन (मुलकोंकी सैर ) करना है, और दूसरा यात्रा करनी है, मेरी ऐसी धारणा है कि अन्न और वस्त्र तो गृहस्थीसे लेना, पर किसी भी कामके लिये द्रव्य कदापि न लेना, इसलिये मेरा पैदल जाना ही ठीक होगा, आप इसमें हठ न करीये।' फिर मैं मकसूदाबादसे चला। कर्मोकी विचित्रतासे वैराग्यकर्म और चित्त चंचल तथा विकारवान् होने लगा, तो मैंने यह प्रण कर लिया कि जब तक मेरी चंचलता न मिटे तब तक नित्य दो मनुष्यको मांस और मछलोका त्याग कराये विना आहार नहीं लेउं । इसी हालतमें शिखरजी तीर्थपर आया, वहां यात्रा की और एक महीने तक रहा। बीस इक्कीस वेर पहाड़के उपर चढकर यात्रा की तथा श्रीपार्श्वनाथजी की टोंक पर अपनो धारना मुजब वृत्ति धारण की। तब पीछे वहांसे आगे चला और ऊपर लिखे नियमानुसार ऐसा नियम करलिया कि जब तक चार आदमियों को मांस और मछलीका त्याग न कराउं तव तक आहार नहीं करूंगा। . इस तरह देश-देशान्तरों में भ्रमण करता और नानकपन्थी, कवीरपन्थी आदि से वाद-विवाद करता गयाजी में पहुंचा। वहांसेराजगिरिमें पहुंचा और पंचपहाड़ की यात्रा की। उस जगह कबीरपन्थी और नानकपन्थी बहुत थे, जिनमें मिलता हुवा पावापुरी में पहुंचा और शासनपति श्रीवर्धमानस्वामीजी की निर्वाण-भूमिके दर्शन किये तो चित्तको बहुत आनन्द हुआ, और इच्छा हुई कि कुछ दिन इस देशमें रहकर ज्ञान प्राप्त करू। दो चार दिन पीछे जब मैं बिहारमें गया तो ऐसा सुना कि 'राजगिरोमें बहुतसे साधु गुफाओंमें रहते हैं।' इसलिये मेरी भी इच्छा हुई कि उनसे अवश्य करके मिलं । ऐसा बिचारकर उन पहाड़ाक Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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