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________________ - २ ] [ द्रव्यानुभव-रत्नाकर । इन नव र नयके २८ (अट्टाईस) भेद होते हैं (१०) द्रव्यार्थिकका छः (६) पर्यार्थिकका, तीन (३) नयगमका, दो (२) संगूहका, दो (२) व्यवहारका, दो (२) ऋजुसूत्रका, एक (१) शब्दका, एक संभिरूढका, और एक (१) एवंभूतका । इस रीतिले दिगम्बर मतमें न ६नय कहा है। 1 अब इसी दिगम्बर आमनासे तीन (३) उपनय और दिखाते है कि— नयके समीप उपनय भी चाहिये तिसमें सद्भुत व्यवहार सो उपनयका प्रथम भेद है, क्योंकि धर्म और धर्मीका भेद दिखानेसे होता है, सो तिसके भी दो भेद हैं। एक तो शुद्ध, दूसरा अशुद्ध, तिसमें * पहला शुद्ध धर्म धर्मीका भेद सो शुद्ध सद्भूत व्यबहार है । और दूसरा शुद्ध धर्म धर्मीका भेद सो अशुद्ध सद्भूत व्यवहार है। इस जगह - सद्भूत तो एकद्रव्य है, और भिन्न द्रव्य संयोग आदिक की अपेक्षा नहीं, तथा व्यबहार सो भेद दिखावे है, जैसे जगत् में आत्म द्रव्यका केवल ज्ञान षष्टी प्रयोग करे सो शुद्ध सद् भूत व्यबहार होय, और मति ज्ञानादिक सो आत्म द्रव्यका गुण है ऐसा कहेंतो अशुद्ध सद्भूत व्यबहार होय, गुण गुणीका पर्याय पर्याय वन्तका, स्वभाव स्वभाववन्तका जो एक द्रव्यानुगतभेद कहे सो सर्ब उपनयका अर्थ जानना, सोही दिखाते हैं, कि “घटस्यरूपं, घटस्य रक्तता, घटस्य स्वभावः मृता “घटोनिष पादित” इत्यादि प्रयोग जान लेना, और पर द्रव्यकी प्रणती मिलाय करके जो द्रव्यादिकके नव बिध उपचार कहे सो असद्भूत -व्यवहार जानना, सो उस नव विध उपचारमें जो प्रथम भेद हैं उसको दिखाते हैं। द्रव्य द्रव्य उपचारका उदाहरण इसरीतिसे है - जैसे जिनागममें कहा है कि “जीव पुद्गलके साथ क्षीर नीर न्याय करके मिला है" इस लिये जीवको पुद्गल कहे, यह जीव द्रव्यमें पुद्गल द्रव्यका उपचार सो द्रव्य २ उपचार पहला भेद हुआ । अब दूसरा भेद कहते हैं कि “गुण गुणोपचार" जो भाव लेस्या सो आत्माका अदपी गुण है सो उसको कृष्ण, नोलादिक -काली लेस्या कहते हैं, सो कृष्णादि पुद्गल द्रव्यके गुणको उपचार Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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