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________________ द्रव्यानुभव - रत्नाकर । ] [ ८७ अब चौथा भेद कहते हैं कि कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध दुव्यार्थिक है, 'जैसे क्रोधादिक कर्मभावमें आत्मा बंधे है और जाने है, परन्तु जिस वक्त जोष्य जिस भावमें परिणमें है तिस वक्त वो दृष्य तनमय आकार हो जाता है, क्योंकि देखो जैसे लोह अग्निमें गर्म किया जाय उस वक्त लोह अग्निके परिणामको परिणम्यो उस कालमें वो लोह अग्निरूप हो जाता है, तैसेही जीव दूव्य मोहनी आदिक कर्मोंके उदयसे क्रोधादि भाव परिणत आत्मा क्रोधादिक रूप हो जाता है, इसलिये अशुद्ध दुव्यार्थिक है । अब पांचवा भेद कहते हैं कि “उत्पाद वय सापेक्ष सत्ता ग्राहक अशुद्ध दुध्यार्थिक" । अब छठा भेद कहते हैं "भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध दुव्यार्थिक” जैसे ज्ञानादिक शुद्ध गुण आत्माका है परन्तु षष्टि विभक्ति भेदको कहती है, परन्तु गुण गुणीका भेद है नहीं, और भेदको माने। इसरीतिसे छठा भेद कहा । अब सातवां भेद कहते हैं कि “अन्वय दुव्यार्थिक” जैसे एक दृष्यके विषय गुण, पर्याय, स्वभाव आदि जुदे २ कहते हैं, इसलिये गुण पर्यायके विषय दुव्यका अन्वय है, इसरीतिले “अन्वय दूब्यार्थिक" सातवां भेद कहा । अब आठवाँ भेद कहते हैं कि "स्वय दुव्यादि ग्राहकं द्रव्यार्थिक" जैसे घटादिक दृव्य है सो स्वय दूव्य, स्वय क्षेत्र, स्वयकाल, स्वयभाव करके अस्ति है । क्योंकि घटका स्वय दृष्य, तो मट्टो, और घटका स्वय क्षेत्र जिसदेश जिसनगरादिमें बने, और घटका स्वयकाल जिस वक्तमें कुंभार बनावे, घटका स्वयभाव लाल रंगादि । इसरीतिसे घटादिक की सत्ता सो प्रमाण अर्थात् सिद्ध है, इसलिये स्वय दुव्यादि ग्राहकं दुव्यार्थिक" अष्टमः भेद हुआ । अब नवां भेद कहते हैं " पर दुव्यादिक ग्राहकं दुव्यार्थिक” जैसे पर दुव्यादिक चारसें घट नास्तिभाव है, क्योकि देखो पर दृष्य जो तन्तु (सूत) प्रमुख उसले घट असत अर्थात् नास्ति है, और परक्षत्र जो अन्य देश अन्य ग्राम आदिक, परकाल जो अतीत, अनागत काल, पर Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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