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________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् अर्थ - अपने विहाररूपी पवन की लहरों से सवा सो (१२५) योजन में पूर्व से उत्पन्न हुए रोगरूपी बादल तत्काल अदृश्य हो जाते हैं । (४) नाविर्भवन्ति यद्भूमौ, मूषकाः शलभाः शुकाः । क्षणेन क्षितिपक्षिप्ता, अनीतय इवेतयः ॥५॥ अर्थ - राजा के द्वारा दूर की हुई अनीति की भांति जहाँ आप विचरण करते हैं वहाँ चूहे, तीड़ और शुक्रादिक पक्षि धान्य को नुकसान करने वाले उपद्रव नहीं कर सकते अर्थात् आपके प्रभाव से सारे उपद्रव दूर हो जाते हैं । (५) स्त्रीक्षेत्रपद्रादिभवो, यद् वैराग्निः प्रशाम्यति । त्वत् कृपापुष्कररावर्त-वर्षादिव भुवस्तले ॥६॥ अर्थ - आपकी कृपारूप पुष्करावर्त मेघ की वर्षा से ही न हो वैसे जहाँ आपके चरण पड़ते हैं वहाँ स्त्री, क्षेत्र और सीमादिक से उत्पन्न समस्त विरोधरूप अग्नि शान्त हो जाते हैं। (६) त्वत् प्रभावे भुवि भ्राम्य-त्यशिवोच्छेदडिण्डिमे । सम्भवन्ति न यन्नाथ ?, मारयो भुवनारयः ॥७॥ अर्थ - हे नाथ ! उपद्रवों का उच्छेद करने के लिये डिण्डिम ढोल बजाने के जैसा आपका प्रभाव भूमि पर प्रसरने से मारी (प्लेग) आदि विश्व के काल जैसा रोगउपद्रव उत्पन्न ही नहीं होते । (७)
SR No.034155
Book TitleVitrag Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages70
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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