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________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् तृतीय प्रकाशः सर्वाभिमुख्यतो नाथ !, तीर्थकृन्नामकर्मजात् । सर्वथा सम्मुखीनस्त्व-मानन्दयसि यत्प्रजाः ॥१॥ अर्थ - हे नाथ ! तीर्थङ्कर नामकर्मजनित सर्वाभिमुख्य नाम के अतिशय से आप केवलज्ञान के प्रकाश द्वारा सर्वथा समस्त दिशाएँ सन्मुख होते हुए देव, मनुष्यादिक प्रजा को प्रतिक्षण आनन्द प्राप्त कराते हैं । (१) यद्योजनप्रमाणेऽपि, धर्मदेशनसद्मनि । संमान्ति कोटिशस्तिर्यग्नदेवाः सपरिच्छदाः ॥२॥ अर्थ - एक योजन यानी चार कोस प्रमाण धर्मदेशना के स्थानरूप समवसरण में परिवारयुक्त करोड़ों देवताओं, मनुष्य और तिर्यञ्च आपके प्रभाव से सुखपूर्वक समा सकते हैं। (२) तेषामेव स्वस्वभाषा-परिणाममनोहरम् । अप्येकरूपं वचनं, यत्ते धर्मावबोधकृत् ॥३॥ अर्थ - आपका एक समान वचन उपदेश देव, मनुष्य और तिर्यञ्चों को अपनी-अपनी भाषा में सुखपूर्वक समझ सकने योग्य हैं और धर्म सम्बन्धी बोध को कराने वाले हैं। (३) साऽग्रेपि योजनशते, पूर्वोत्पन्ना गदाम्बुदाः। यदञ्जसा विलीयन्ते, त्वद् विहारानिलोर्मिभिः ॥४॥
SR No.034155
Book TitleVitrag Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages70
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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