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________________ तत्त्वार्थ सूत्र पीतान्तलेश्याः ॥७॥ अर्थ प्रथम दो निकाय के देव पीत पर्यन्त — लेश्यावाले हैं । १९ काय - प्रवीचारा आ - ऐशानात् ॥८॥ अर्थ - ऐशान स्वर्ग पर्यन्त तक के देव काय प्रवीचार अर्थात् शरीर से विषय - सुख भोगनेवाले होते हैं । शेषाः स्पर्श-रूप- शब्द - मन: प्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः ॥९॥ अर्थ - शेष देव दो दो कल्पो में क्रमशः स्पर्श, रूप, शब्द और संकल्प द्वारा विषय सुख भोगते हैं परेऽप्रवीचाराः ॥१०॥ अर्थ - बाकी के सब देव विषय रहित होते हैं । भवनवासिनो - ऽसुर - नाग - विद्युत्सुपर्णाग्नि-वातस्तनितोदधि-द्वीप-दिक्कुमाराः ॥११॥ अर्थ – भवनपति देवों के दस भेद हैं - असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार । व्यन्तराः किन्नर - किंपुरुष - महोरग - गान्धर्व-यक्षराक्षस - भूत-पिशाचाः ॥ १२ ॥ अर्थ - व्यंतर देवों के आठ भेद हैं किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गान्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । ज्योतिष्काः सूर्यश्चन्द्रमसो- ग्रह-नक्षत्र-प्रकीर्णतारकाश्च ॥१३॥ -
SR No.034154
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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