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________________ अध्यात्मकल्पद्रुम ९७ यो दानमानस्तुतिवन्दनाभि, र्न मोदतेऽन्यैर्न तु दुर्मनायते । अलाभलाभादि परीषहान् सहन्, यतिः स तत्त्वादपरो विडम्बकः ॥ ४५ ॥ अर्थ - "जो प्राणी दान, मान (सत्कार, स्तुति और नमस्कार से प्रसन्न न होता हो और इनके विपरीत (असत्कार, निंदा आदि) से अप्रसन्न न होता हो, तथा अलाभ आदि परीषहों को सहन करता है वह परमार्थ से यति है, शेष अन्य तो वेषविडंबक हैं । " दधद् गृहस्थेषु ममत्वबुद्धिं, तदीयतप्त्या परितप्यमानः । अनिवृत्तान्तःकरणः सदा स्वै स्तेषां च पापैर्भ्रमिता भवेऽसि ॥ ४६ ॥ अर्थ - "गृहस्थ के ऊपर ममत्वबुद्धि रखने से और उनके सुख दुःख की चिन्ता से दुःखी होने से तेरा अन्तःकरण सर्वदा व्याकुल रहेगा, और तेरे तथा उनके पाप से तू संसार में भटकता रहेगा ।" त्यक्त्वा गृहं स्वं परगेहचिन्ता तप्तस्य को नाम गुणस्तवर्षे ! । आजीविकास्ते यतिवेषतोऽत्र, सुदुर्गतिः प्रेत्य तु दुर्निवारा ॥४७॥
SR No.034152
Book TitleAdhyatma Kalpadruma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunisundarsuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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