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________________ अध्यात्मकल्पद्रुम अर्थ - "सुख-दुःख की प्राप्ति होना तेरे मन के वश में है। मन जिसके साथ मिलता है उसके साथ एकाकार हो जाता है, अतएव प्रमादरूप चोर के मिलने से अपने मन को रोककर रख, और शीलांगरूप मित्रों के साथ उसे निरन्तर जोड़।" ध्रुवः प्रमादेर्भववारिधौ मुने !, तय प्रापतः परमत्सरः पुनः । गले निबद्धोरुशिलोपमोऽस्ति चेत्, कथं तदोन्मज्जनमप्यवाप्स्यसि ॥४३॥ अर्थ - "हे मुनि ! तू जो प्रमाद करता है उसके कारण संसारसमुद्र में गिरना तो तेरा निश्चय ही है, परन्तु फिर भी दूसरों पर मत्सर करता है, यह गर्दन में बँधी हुई एक बड़ी शिला के सदृश है, तो फिर तू इसमें से किस प्रकार ऊपर उठ सकता है ?" महर्षयः केऽपि सहन्त्युदीर्या प्युग्रातपादीन्यपि निर्जरार्थम् । कष्टं प्रसङ्गागतमप्यणीयोऽ पीच्छन् शिवं किं सहसे न भिक्षो ! ॥४४॥ अर्थ - "बड़े बड़े ऋषि मुनि कर्म की निर्जरानिमित्त उदीरणा करके भी आतापनादि को सहन करते हैं और तू जो मोक्ष का अभिलाषी है तो फिर प्राप्त हुए अत्यन्त अल्प कष्ट को भी हे साधु ! तू क्यों नहीं सहन करता है ?"
SR No.034152
Book TitleAdhyatma Kalpadruma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunisundarsuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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