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________________ अध्यात्मकल्पद्रुम ७५ अर्थ - "जिनेश्वर भगवान की ओर अभक्ति (आशातना), साधुओं की अवगणना, व्यापारादि में अनुचित प्रवृत्ति, अधर्मी का संग, मातापिता आदि की सेवा करने में उपेक्षा (अवहेलना) और परवंचन-दूसरों को ठगना ये सभी इस प्राणी के लिये चारों ओर से विपदाएँ उत्पन्न करते हैं।" भक्त्यैव नार्चासि जिनं सुगुरोश्च धर्म, नाकर्णयस्यविरतं विरतीर्न धत्से । सार्थं निरर्थमपि च प्रचिनोष्यघानि, मूल्येन केन तदमुत्र समीहसे शम् ? ॥१३॥ अर्थ - "हे भाई ! तू भक्ति से श्री जिनेश्वर भगवान की पूजा नहीं करता है, वैसी ही उत्तम गुरुमहाराज की भी सेवा नहीं करता है, सदैव धर्म का श्रवण नहीं करता है, विरति (पाप से पीछे हटना-व्रत पच्चख्खाण करना) को तो धारण भी नहीं करता है, अपितु प्रयोजन अथवा बिना प्रयोजन से ही पाप की पुष्टि करता है तो फिर तू किस कीमत पर आनेवाले भव में सुख प्राप्त करने की अभिलाषा रखता है ?" चतुष्पदैः सिंह इव स्वजात्यै मिलन्निमांस्तारयतीह कश्चित् । सहैव तैर्मज्जति कोऽपि दुर्गे, शृगालवच्चेत्यमिलन् वरं सः ॥१४॥
SR No.034152
Book TitleAdhyatma Kalpadruma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunisundarsuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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