SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७ अध्यात्मकल्पद्रुम 'धर्म' प्राप्त होता है वह सब कषाय करने से एक ही झटके में एकदम नाश हो जाता है । हे मूर्ख ! अत्यन्त परिश्रम से प्राप्त किया हुआ सोना एक फूंक मारकर क्यों उड़ा देता है?" शत्रूभवन्ति सुहृदः कलुषीभवन्ति, धर्मा यशांसि निचितायशसीभवन्ति । स्निह्यन्ति नैव पितरोऽपि च बान्धवाश्च, लोकद्वयेऽपि विपदो भविनां कषायैः ॥१६॥ अर्थ - "प्राणी के कषाय से मित्र शत्रु हो जाता है, यश अपयश का घर हो जाता है, माँ बाप भाई तथा सगे स्नेही स्नेह रहित हो जाते हैं, और इस लोक तथा परलोक में अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ता है।" रूपलाभकुलविक्रमविद्या श्रीतपोवितरणप्रभुताद्यैः । किं मदं वहसि वेत्सि न मूढा नन्तशः स्म भृशलाघवदुःखम् ॥१७॥ अर्थ - "रूप, लाभ, कुल, बल, विद्या, लक्ष्मी, तप, दान, ऐश्वर्या आदि का मद तू क्या देख कर करता है ? हे मूर्ख ! अनन्त बार जो तुझे लघुता का दुःख सहना पड़ा है क्या तू उसको भूल गया है ?"
SR No.034152
Book TitleAdhyatma Kalpadruma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunisundarsuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy