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________________ ३६ करोषि यत्प्रेत्यहिताय किञ्चित्, कदाचिदल्पं सुकृतं कथञ्चित् । मा जीहरस्तन्मदमत्सराद्यै, अध्यात्मकल्पद्रुम विना च तन्मा नरकातिथिर्भूः ॥ १३ ॥ अर्थ - " किसी समय अत्यन्त कठिनता से भी परभव के लिये तुझे यदि अल्पमात्र उत्तम कार्य (सुकृत्य) करने का अवसर प्राप्त हो जाए तो फिर उसका मद मत्सर द्वारा नाश न कर, और सुकृत्य किए बिना नरक का महेमान न बन ।" पुरापि पापैः पतितोऽसि संसृतौ, दधासि किं रे गुणिमत्सरं पुनः ? । न वेत्सि किं घोरजले निपात्यसे ? नियंत्र्यसे शृङ्खलया च सर्वतः ॥ १४ ॥ अर्थ - " अरे ! पहले ही तू पापों के द्वारा संसार में पड़ा है, तो फिर और गुणवान् पर इर्ष्या क्यों करता है ? क्या तू नहीं जानता है कि इस पाप से तू गहरे पानी में उतर रहा है और तेरा सम्पूर्ण शरीर सांकलों से जकड़ा हुआ है ।" कष्टेन धर्मो लवशो मिलत्ययं, क्षयं कषायैर्युगपत्प्रयाति च । अतिप्रयत्नार्जितमर्जुनं ततः, किमज्ञ ! ही हारयसे नभस्वता ॥ १५ ॥ अर्थ - "महाकष्ट भोगने पर जो थोड़ा थोड़ा करके
SR No.034152
Book TitleAdhyatma Kalpadruma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunisundarsuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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