SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम ___ अर्थ - "इस संसार में जो विचारशील पुरुष होते हैं वे तो विचार करके ऐसी वस्तु को ग्रहण करते हैं, जो लाखों वर्षों तक चलती है और परिणाम में भी सुन्दर होती है, तो फिर हे चेतन ! इस भव के बाद अनन्तसुख दिलानेवाले इस धार्मिक आचार को तू क्यों छोड़ देता है ?" ॥२१॥ निजः परो वेति कृतो विभागो, रागादिभिस्ते त्वरयस्तवात्मन् । चतुर्गतिक्लेशविधानतस्तत्, प्रमाणयन्नस्यरिनिर्मितं किम् ॥२२॥ अर्थ - "हे चेतन ! तेरा अपना और पराया ऐसा विभाग रागद्वेष के द्वारा किया हुआ है। चारों गतियों में तुझे अनेक प्रकार के क्लेश पहुँचानेवाले होने के कारण राग-द्वेष तो तेरे शत्रु हैं । शत्रुओं के द्वारा किये हुए विभाग को तू क्यों स्वीकार करता है ? ॥२२॥" अनादिरात्मा न निजः परो वा, कस्यापि कश्चिन्न रिपुः सुहृदा । स्थिरा न देहाकृतयोऽणवश्च, तथापि साम्यं किमुपैषि नैषु ॥२३॥ अर्थ - "आत्मा अनादि है, किसी का कोई अपना नहीं और कोई पराया नहीं, कोई शत्रु नहीं और कोई मित्र नहीं देह की आकृति और (उसमें रहनेवाले) परमाणु स्थिर नहीं-फिर भी उनमें तू समता क्यों नहीं रखता ?"॥२३॥
SR No.034152
Book TitleAdhyatma Kalpadruma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunisundarsuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy