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________________ अध्यात्मकल्पद्रुम अर्थ - " दूसरे गुणवान् प्राणियों के गुणों की स्तुति करते समय, अन्य पुरुष अपने ऊपर क्रोध करें अथवा अपनी निन्दा करें उस समय, जो अपने मन को स्थिर रखता है अथवा उस समय जो आनंदित होता है और इसके विरुद्ध बात होने पर (जैसे परगुणनिन्दा अथवा आत्मप्रशंसा होने पर) जो दुःखी होता है वह प्राणी ज्ञानी कहलाता है ॥१९॥” न वेत्सि शत्रुन् सुहृदश्च नैव, हिताहिते स्वं न परं च जंतोः । दुःखं द्विषन् वांछसि शर्म, चैतन्निदानमूढः कथमाप्स्यसीष्टम् ॥२०॥ अर्थ - "हे आत्मन् ! तू अपने शत्रु और मित्र को नहीं पहचानता है; कौन तेरा हितकर और कौन तेरा अहितकर है इस को नहीं जानता है और कौन तेरा अपना तथा कौन पराया है यह भी नहीं जानता है, (और) तू दुःख पर द्वेष करता है और सुख मिलने की इच्छा करता है, परन्तु उनके कारणों को नहीं जानता फिर तू कैसे अपनी इच्छित वस्तु पा सकेगा ?" कृति हि सर्व परिणामरम्यं, विचार्य गृह्णाति चिरस्थितीह । भवान्तरेऽनन्तसुखाप्तये, तदात्मन् किमाचारमिमं जहासि ॥ २१ ॥
SR No.034152
Book TitleAdhyatma Kalpadruma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunisundarsuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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