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________________ वैराग्यशतक रूपी कमल है, पर्वत रूपी केसराए और दिशा रूपी बड़ेबड़े पत्र हैं, उस कमल पर बैठकर कालरूपी भ्रमर सतत जीव रूपी मकरन्द का पान कर रहा है ॥८॥ छायामिसेण कालो, सयलजियाणं छलं गवेसंतो । पासं कह वि न मुंचइ, ता धम्मे उज्जमं कुणह ॥९॥ अर्थ : हे भव्य प्राणियो ! छाया के बहाने सकल जीवों के छिद्रों का अन्वेषण करता हुआ यह काल (मृत्यु) हमारे सामीप्य को नहीं छोड़ता है, अतः धर्म के विषय में उद्यम करो ॥९॥ कालंमि अणाईए, जीवाणं विविहकम्मवसगाणं । तं नत्थि संविहाणं, संसारे जं न संभवइ ॥१०॥ अर्थ : अनादिकालीन इस संसार में नाना कर्मों के आधीन जीवात्मा को ऐसा कोई पर्याय नहीं है, जो संभवित न हो ॥१०॥ बंधवा सुहिणो सव्वे, पियमायापुत्तभारिया । पेयवणाउ नियत्तंति, दाऊणं सलिलंजलिं ॥ ११ ॥ अर्थ : सभी बान्धव, मित्र, पिता, माता, पुत्र, पत्नी आदि मृतक के प्रति जलांजलि देकर श्मसानभूमि से वापस अपने घर लौट आते हैं ॥११॥ विहडंति सुआ विहडंति बंधवा वल्लहा य विहडंति । इक्को कहवि न विहडइ, धम्मो रेजीव ! जिणभणिओ ॥१२॥ अर्थ : हे आत्मन् ! इस संसार में पुत्रों का वियोग होता
SR No.034151
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorPurvacharya Maharshi
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages58
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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