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________________ प्रशमरति हैं ॥२८४॥ पूर्वरचितं च तस्यां समयश्रेण्यामथ प्रकृतिशेषम् । समये समये क्षपयत्यसंख्यगुणमुत्तरोत्तरतः ॥२८५॥ अर्थ : पहले की शेष कर्मप्रकृतियों की [वेदनीय, नाम, गोत्र, आयुष्य को] शैलेशी की समयपंक्ति में, प्रत्येक समय में असंख्यगुण-असंख्यगुण खपाता है ॥२८५॥ चरमे समये संख्यातीतान् विनिहन्ति चरमकर्मांशान् । क्षपयति युगपत् कृत्स्नं वेद्यायुर्नामगोत्रगणम्॥२८६॥ अर्थ : अन्तिम समय में, असंख्य चरम कर्मदलिकों को नष्ट करता है। इस तरह एक साथ समस्त वेदनीय नामगोत्र और आयुष्यकर्म का नाश करता है ॥२८६॥ सर्वगतियोग्यसंसारमूलकरणानि सर्वभावीनि । औदारिक-तैजस कार्मणानि सर्वात्मना त्यक्त्वा ॥२८७॥ अर्थ : सर्व गति [नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव] के योग्य संसार-परिभ्रमण [जन्म-मृत्यु] में निमित्त व सर्वत्र होनेवाले [चार गति में] औदारिक, तैजस, कार्मण [कहीं पर वैक्रिय-तैजस-कार्मण] शरीरों का उनके सर्वस्वरूप में त्याग करके... ॥२८७॥ देहत्रयनिर्मुक्तः प्राप्य ऋजुश्रेणिवीतिमस्पर्शाम् । समयेनैकेनाविग्रहेण गत्वोर्ध्वमप्रतिघः ॥२८८॥
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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