SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रशमरति ८५ अर्थ : काययोग का निरोध करती हुई आत्मा सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाती [तीसरा शुक्लध्यान] रचाकर फिर विगतक्रिया-अनिवर्ती [चौथा शुक्लध्यान] लगाती है ॥२८१॥ चरमभवे संस्थानं यादृग् यस्योच्छ्यप्रमाणं च । तस्मात् त्रिभागहीनावगाह-संस्थानपरिणाहः ॥२८२॥ अर्थ : अन्तिमभव में जैसा जिसका संस्थान हो [आकार-आकृति हो] और ऊँचाई हो उससे तृतीयांश कम हो जाता है ॥२८२॥ सोऽथ मनोवागुच्छ्वासकाययोगक्रियार्थविनिवृत्तः । अपरिमितनिर्जरात्मा संसारमहार्णवोत्तीर्णः ॥२८३॥ अर्थ : मनोयोग, वचनयोग, श्वासोच्छास और काययोग के निरोध की क्रिया से निवृत्त हुई वह आत्मा कर्मों की अपरिमित निर्जरा करती है और संसाररूप महासागर को तैर जाती है ॥२८३॥ ईषद्हस्वाक्षरपञ्चकोगिरणमात्रतुल्यकालीयाम् । संयमवीर्याप्तबलः शैलेशीमेति गतलेश्यः ॥२८४॥ ___ अर्थ : संयम और वीर्य से प्राप्त किए हुए बलशाली और अलेशी केवलज्ञानी कुछ एक पाँच ह्रस्वाक्षरों के [ङय ण न म...] उच्चारण काल-प्रमाण शैलेशी को प्राप्त करते
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy