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________________ ६२ प्रशमरति की अपेक्षया आत्मा है एवं पर की अपेक्षया अनात्मा है ॥२०२॥ एवं संयोगाल्पबहुत्वाद्यैर्नेकशः स परिमृग्यः । जीवस्यैतत् सर्वं स्वतत्त्वमिह लक्षणैर्दष्टम् ॥२०३॥ अर्थ : इस तरह संयोग, अल्प-बहुत्व वगैरह के द्वारा अनेक प्रकार से आत्मा की परीक्षा करनी चाहिए । यहाँ जीव का यह सारा [विवरण] स्वतत्त्वभूत स्वरूप लक्षणों से देखा गया है ॥२०३॥ उत्पादविगमनित्यत्वलक्षणं यत्तदस्ति सर्वमपि । सदसद्वा भवतीत्यन्यथापितानर्पितविशेषात् ॥२०४॥ अर्थ : जो उत्पत्ति-व्यय व ध्रौव्य के लक्षण से युक्त है वह सब सत् है। उससे जो विपरीत है वह असत् है। इस तरह अर्पित-अनर्पित के भेद से वस्तु सत्-असत् होती है ॥२०४॥ योऽर्थो यस्मिन्नाभूत् साम्प्रतकाले च दृश्यते तत्र । तेनोत्पादस्तस्य विगमस्तु तस्माद्विपर्यासः ॥२०५॥ साम्प्रतकाले चानागते च यो यस्य भवति सम्बन्धी । तेनाविगमस्तस्येति स नित्यस्तेन भावेन ॥२०६॥ अर्थ : जिसमें वह अर्थ नहीं था पर वर्तमान काल में दिखायी दे रहा है, उसकी उस अर्थ में उत्पत्ति है और उससे
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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