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________________ ६० प्रशमरति ज्ञानाऽज्ञाने पञ्चत्रिविकल्पे सोऽष्टधा तु साकारः। चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदृग्विषयस्त्वनाकारः ॥१९५॥ ___ अर्थ : पाँच प्रकार के ज्ञान और तीन प्रकार के अज्ञान-ये आठ प्रकार के साकार उपयोग हैं । चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन एवं केवलदर्शन ये चार प्रकार के अनाकार उपयोग हैं ॥१९५॥ भावा भवन्ति जीवस्यौदयिकः पारिणामिकश्चैव । औपशमिकः क्षयोत्थः क्षयोपशमजश्च पञ्चैते ॥१९६॥ अर्थ : जीव के औदयिक, पारिणामिक औपशमिक, क्षायिक एवं क्षायोपशमिक ये पाँच भाव होते हैं ॥१९६।। ते चैकविंशति-त्रि-द्वि-नवाष्टादशविधाश्च विज्ञेयाः। षष्ठश्च सान्निपातिक इत्यन्यः पञ्चदशभेदः ॥१९७॥ अर्थ : वे (औदायिक भाव वगैरह) २१-३-२-९ एवं १८ प्रकार के (क्रमश:) जानने चाहिए । दूसरा 'सान्निपातिक' नाम का छठा भाव है । उसके पन्द्रह प्रकार हैं ॥१९७॥ एभिर्भावैः स्थानं गतिमिन्द्रियसम्पदः सुखं दुःखम् । संप्राप्नोतीत्यात्मा सोऽष्टविकल्पः समासेन ॥१९८॥ अर्थ : इन भावों से आत्मा स्थान, गति, इन्द्रिय, संपत्ति, सुख एवं दुःख प्राप्त करता है । संक्षेप में उसके
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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