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________________ ५४ प्रशमरति बान्धव-धनेन्द्रिय-सुखत्यागात् त्यक्तभयविग्रहः साधुः । त्यक्तात्मा निर्ग्रन्थस्त्यक्ताहंकारममकारः ॥१७३ ॥ अर्थ : कुटुम्ब, धन और इन्द्रिय से संबंधित सुख का त्याग करने से, जिसने भय और कलह का त्याग किया है एवं अहंकार व ममकार को छोड़ दिया है, वे त्यागमूर्ति साधु निर्ग्रन्थ हैं ॥१७३॥ अविसंवादनयोगः कायमनोवागजिह्मता चैव। सत्यं चतुर्विधं तच्च जिनवरमतेऽस्ति नान्यत्र ॥१७४॥ ___अर्थ : अविसंवाद, काया की अकुटिलता, मन की अकुटिलता और वाणी की अकुटिलता-सत्य के ये चार प्रकार हैं । और ऐसा सत्यधर्म जिनमत में ही है, अन्यत्र कहीं नहीं है ॥१७४॥ अनशनमूनोदरता वृत्तेः संक्षेपणं रसत्यागः। कायक्लेशः संलीनतेति बाह्यं तपः प्रोक्तम् ॥१७५॥ अर्थ : अनशन, उनोदरता, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और संलीनता इस प्रकार के बाह्य तप कहे गये हैं ॥१७५॥ प्रायश्चित्तध्याने वैयावृत्त्यविनयावथोत्सर्गः । स्वाध्याय इति तपः षट्प्रकारमभ्यन्तरं भवति ॥१७६॥ अर्थ : प्रायश्चित, ध्यान, वैयावृत्य, विनय, कायोत्सर्ग
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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