SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रशमरति अर्थ : सभी गुण विनय के अधीन हैं और विनय मार्दव के वश में है। (अतः) जिसमें पूर्ण मार्दवधर्म होता है वो सभी गुणों को प्राप्त कर लेता है ॥१६९।। नानार्जवो विशुद्धयति न धर्ममाराधयत्यशुद्धात्मा । धर्मादृते न मोक्षो मोक्षात्परमं सुखं नान्यत् ॥१७०॥ अर्थ : आर्जव (सरलता) के बगैर शुद्धि नहीं होती, अशुद्ध आत्मा धर्माराधना नहीं कर सकती, धर्म के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती और मोक्ष से बढ़कर दूसरा कोई सुख नहीं है ॥१७॥ यद् द्रव्योपकरण-भक्तपान-देहाधिकारकं शौचम् । तद्भवति भावशौचानुपरोधाद्यत्नतः कार्यम् ॥१७१॥ अर्थ : द्रव्य, उपकरण, खान-पान और शरीर को लेकर जो शुद्धि की जाती है वो प्रयत्नपूर्वक इस तरह करनी चाहिए कि जिससे भाव शौच को क्षति न पहुँचे ॥१७१॥ पञ्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहश्च कषायजयः। दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥१७२॥ अर्थ : पाँच आश्रवों से विरति, पाँच इन्द्रियों का निग्रह, चार कषायों पर विजय और तीन दण्ड (मन दण्ड, वचन दण्ड, कायदण्ड) से विराम, ये सत्रह प्रकार के संयम हैं ॥१७२॥
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy