SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रशमरति ३७ अर्थ : इस तरह गुण और दोष में विपरीत दर्शन करने से आत्मा विषयों में आसक्त बनी हुई है । संसारपरिभ्रमण से डरते हुए जीवों को 'आचारांग' का अनुशीलन करके उसकी (आत्मा की) रक्षा करनी चाहिए ॥११२॥ सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोवीर्यात्मको जिनैः प्रोक्तः । पञ्चविधोऽयं विधिवत् साध्वाचारः समनुगम्यः ॥११३॥ अर्थ : तीर्थंकरों ने सम्यक्त्वाचार, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, तपाचार और वीर्याचाररूप पाँच प्रकार का साध्वाचार (आचारांग का अर्थ) कहा है। उसे विधिपूर्वक जानना चाहिए ॥११३॥ षड्जीवकाययतना लौकिकसन्तान-गौरव-त्यागः । शीतोष्णादिपरीषहविजयः सम्यक्त्वमविकम्प्यम् ॥११४॥ अर्थ : छह जीवकाय की रक्षा, कुटुम्बिजनों के ममत्व का त्याग, शीत, उष्ण वगैरह परीषहों का विजय, अविचल सम्यक्त्व ॥११४॥ संसाराददेगः क्षपणोपायश्च कर्मणां निपणः। वैयावृत्त्योद्योगस्तपोविधिर्योषितां त्यागः ॥११५॥ अर्थ : संसार-उद्वेग, कर्मो को खपाने का कुशल उपाय, वैयावृत्य में तत्परता, तप की विधि और स्त्री का त्याग ॥११५॥ आचारांग के ये नौ भेद हैं।
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy