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________________ प्रशमरति इसलिये सारे कल्याणों का ( पारम्परिक) भाजन विनय है ॥७४॥ विनयव्यपेतमनसो गुरुविद्वत्साधुपरिभवनशीलाः । त्रुटिमात्र विषयसङ्गादजरामरवन्निरूद्विग्नाः ॥७५॥ अर्थ : विनय रहित मन वाले, गुरुजन, विद्वज्जन और साधु पुरुषों का अनादर करने वाले [ जीव] अति अल्प मात्र विषयासक्ति से अजर-अमर की भांति उद्वेगरहित होते हैं ॥७५॥ २६ केचित्सातद्धिरसातिगौरवात् सांप्रतेक्षिणः पुरुषाः । मोहात्समुद्रवायसवदामिषपरा विनश्यन्ति ॥ ७६ ॥ अर्थ : शाता, ऋद्धि और रस में अति आदर के कारण केवल वर्तमान काल को ही देखने वाले पुरुष [परमार्थ को नहीं समझने वाले] अज्ञान से [अथवा मोहनीय कर्म के उदय से] समुद्र के कौए की भांति मांसलोलुपी, [ऐसे वे ] विनाश पाते हैं ॥७६॥ ते जात्यहेतुदृष्टान्तसिद्धमविरूद्धमजरमभयकरम् । सर्वज्ञवाग्रसायनमुपनीतं नाभिनन्दन्ति ॥७७॥ अर्थ : श्रेष्ठ हेतु एवं दृष्टान्त से सिद्ध [ प्रतिष्ठित ], अविरुद्धि [संवादी] अमर करने वाला और अभय करने वाला, ऐसा सर्वज्ञ वाणी का रसायन मिलने पर भी वे [उस
SR No.034150
Book TitlePrashamrati
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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